प्राचीन पंडित और कवि ___ लोलिवराज के ग्रंथों में वैद्यावतंस बहुत ही छोटी पुस्तक है। जैसा ऊपर कहा गया है, उसमें केवल ५८ श्लोक है और उनमे पदायों के गुण-दोष का शिवरण है । वैद्यावतस के आदि और अत में लोविराज ने मगलाचरण के जो दो श्लोक लिये है चे, सानुप्रास होने के कारण, बहुत ही मनो हर है। उनमें से पहला श्लोक यह है- अनुकृतमरकतवर्णा शोभितकर्ण कदम्बकुसुमेन । नखमुखमुखरितवीणा मध्ये क्षीणा शिया शिव कुर्यात् ॥ मरकतमणि के वर्ण का जिसने अनुकरण किया है, कदर पुष्प से जिसके कान शोभित है, नख से जो वीणा का यजा रही है-ऐसी क्षीणकटी शिवा (पार्वती) मंगल करे ! दूसरा, अर्थात् वैद्यावतंस का ५७याँ श्लोक यह है- अधरन्यमृतविंवा जितशशिविम्या मुखप्रभया । गमनाविरलविलम्बा निपुलनितम्या शिवा शिवं कुर्यात् ।। अपने अधरों से विवाफल का धिकार करनेगली और मुख की कांति से चद्रविंय को जीतनेवाली, मंदगामिनी तथा विस्तृत-नितव शालिनी शिना मगल करे! __यह अनुमान होता है कि वैद्यावतस लोलिपराज का पहला प्रथ है। इसमें इन दो श्लोकों के अतिरिक्त, हमारी समझ में, एक ही और श्लोक है जिसे बहुत अच्छी करिता कह सकते हैं । करेले के गुणों का वर्णन करते हुए लोलिंब राज उसकी प्रशंसा इस प्रकार करते है-
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