प्राचीन पंडित और कवि
इससे लोलिंवराज का शाक्त होना और सप्तग स्थित
श्रष्टादश-भुजावाली देवी की उपासना करना सिद्ध है।
इससे यह भी सिद्ध है कि वे दाक्षिणात्य थे, क्योंकि सत्त-
शृंग-पर्वत दक्षिण ही में है । देवी की उपासना का परिचय
लोलियराज अपने वैद्यावतस प्रथ में भी देते है। वहाँ श्राप
कहते हैं-
हुतवहहुतजंघाजानुमांसप्रभावा-
दधिगतगिरिजाया स्तन्यपीयूपपानः ।
रचयति चरकादीन् वीक्ष्य वैद्यावतंस
कविकुलसुलतानो लाललोलिम्बराज.॥
अर्थात् जघा और गॉठ के मास को काट-काटकर अग्नि में होम करने के प्रभाव से प्रसन्न होनेवाली पार्वती के दुग्ध रूपी अमृत का पान प्राप्त करनेवाला, कविकुल का सुल्तान (बादशाह), लोलिवराज, चरक श्रादि ग्रंथों को देखकर वैद्यावतम की रचना करता है। गिरिजा ने प्रसन्न होकर जिसे पुत्रवत् अपना स्तन पान कराया, वह कवियों का बादशाह हो गया तो क्या श्राश्चर्य ! उसे कधियों, वैद्यों, ज्योतिषियों, गायकों और सभी विषयों के विद्वानों का शाहशाह होना चाहिए । पडित गद लाल और अयिकादत्त व्यास इत्यादि आधुनिक विद्वान् भी शरीर के मास का एक भी टुकड़ा हवन किये विना दी एक घड़ी में सौ अनुष्टुप श्लोकों को रचना कर सकते