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लोलिंबराज

लोलिंबराज को विष में बुझाए हुए बाण के समान लगे। वे तुरंत घर से बाहर हो गये और दक्षिण के सप्तशृंग नामक पर्वत पर जाकर वहाँ स्थापित की हुई अट्ठारह भुजावाली देवी को, विद्याप्राप्ति के निमित्त, प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगे। लोलिंबराज की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उनसे 'तथास्तु' कहकर उनकी कामना पूरी की। तब से लोलिंबराज महाकवि, महापंडित, महान गायक और महान वैद्य हो गये।

बेचनरामजी ने इस वार्ता को 'जनश्रुति' कहा है। यद्यपि इस विषय का प्रामाणिक लेख हमें कहीं नहीं मिला, तथापि इसकी कुछ सूचना लोलिंबराज के ग्रंथों में मिलती है। यथा––

रत्नं वामदृशां दृशां सुखकरं श्रीसप्तशृंगारपदं
स्पष्टाष्टादशबाहु तद्भगवतो भर्गस्य भाम्यं भजे।
यद्भक्तेन मया घटस्तनि! घटीमध्ये समुत्पाद्यते
पद्यानां शतमङ्गनाधरसुधास्पर्धाविधानोद्धुरम्॥

वैद्यजीवन में लोलिंबराज अपनी स्त्री से कहते हैं—हे घटस्तनि! स्त्रियों में रत्नस्वरूपिणी, नेत्रानंददायिनी, सप्तशृंगपर्वतनिवासिनी, अट्ठारहभुजावाली, भगवान वामदेव की उस शक्ति का मैं भजन करता हूँ जिसका भक्त मैं, सुलोचनियों की अधर-सुधा की स्पर्द्धा करनेवाले सौ श्लोक, एक घड़ी में, रच सकता हूँ।