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ओङ्कार-मान्धाता


असल की अपेक्षा उस नकली मन्दिर ही की अधिक प्रतिष्ठा की। इसी से उस मन्दिर की प्रधानता रही।

ठाकुर जगमोहनसिह ने, जिस समय वे खण्डवा में तह- सीलदार थे, ओङ्कारचन्द्रिका नामक एक पद्यबद्ध छोटो सी पुस्तक लिखी है। उसमें उन्होंने ओङ्कारजी का अच्छा वर्णन किया है।

[जनवरी १६०५


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