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प्राचीन चिह्न


और बारहवे का तीन-थाल है। १ से लेकर ९ पर्यन्त की गुफाओं में, ढेड़ और महार शब्द मराठी-भाषा में नीच जाति के सूचक हैं। ये नाम पीछे से वहाँ के रहनेवालों ने रख लिये हैं। ये मन्दिर ६५० ईसवी के पहले के बने हुए हैं। इनमे से कुछ इससे भी पुराने हैं। वे ४५० ईसवी के लगभग बने हुए जान पड़ते हैं। ढेडवाड़ा नाम का मन्दिरसमूह सबसे अधिक पुराना है; और विश्वकर्मा सबसे अधिक विशाल और अवलोकनीय है। दोन-थाल का अर्थ दो खण्ड और तीन-थाल का अर्थ तीन खण्ड ( का मन्दिर ) है।

ये गुफा-मन्दिर पर्वत काटकर उसी की पार्वतीय चट्टानों में, भीतर ही भीतर, गढे गये हैं। इनको बनाने मे बाहर से ईट, पत्थर लाकर नहीं लगाया गया। पहाड़ों में से एक छोटी सी पटिया काटकर निकालने मे कितना भगीरथ प्रयत्न करना पड़ता है; फिर उसको काटकर उसके भीतर मन्दिर खड़ा कर देना कितने कौशल, कितने यत्न और कितने श्रम का काम है, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

१ से लेकर ९ नम्बर तक के वौद्ध मन्दिरों मे अनेक मनोहर-मनोहर मूर्तियाँ हैं। कही अवलोकितेश्वर बुद्ध की प्रतिमा है, कही पद्मपाणि की, कही अक्षोभ्य की, और कहीं अमिताभ की। तारा, सरस्वती और मञ्जु श्री आदि शक्तियों की मूर्तियाँ भी ठौर-ठौर पर हैं, उनकी सेवा विद्याधर कर रहे हैं। इन मूर्तियों की बनावट इतनी अच्छी और इतनी निर्दोष है कि