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चलिये अब यह भूमि आपके योग्य नहीं है, ग्रीष्म कुञ्ज मधुमय वसन्त के भोग्य नहीं है" यह सुन करके राणा ने तब अश्व फिराया जैसे दिनकर साथ सदा रहती है छाया उसी तरह हरिदास भी राणा के अनुगत हुए अभिवादन करते हुए खुर्रम भी तब नत हुए। अस्तोन्मुख दिननाथ सदृश पहुँचे मन्दिर में, अमर सिंह जा बैठ गये तब राज अजिर में। कुंवर कर्ण को दास भेज करके बुलवाया, आज्ञा पाते नन्दन पद वन्दन को आया। अश्रु भरे दग से निरख संघ लिया शिर क्षेम से जैसे वर्षा में जलद शृंग चूमता प्रेम से। सजल जलद गम्भीर शब्द में सुत से बोले, रहा न ऐसा वीर निमन्त्रण रण का जो ले पूत भूमि मेवाड़ हुई पद दलित यवन से धन, जन से परिपूर्ण नगर अब है कानन से अरि हय पद के हलों से पुण्य भूमि खोदी गई युद्ध खेत में भी लता अपयश की बो दी गई। भाग्य चक्र के साथ सदा फिरती है नर मति इस अयोग्य के हाथ हई जननी की दुर्गति अमरसिंह इस योग्य न था जो करता शासन पूर्व पुरुष का दिया हुआ यह तेरा आसन उसे ग्रहण अब तुम करो देश कार्य की सिद्धि हो करो वही मेवाड़ की जिसमें नव श्रीवृद्धि हो॥ इसके पहले कहूं वत्स जो उसको सुन लो वही तुम्हारा कार्य उसे निज मन में गुन लो उदय सरोवर स्वच्छ सुजल के रम्य तटी में देव तुल्य मम "तात रहे जिस पुण्य कुटी में सरदारों ने सामने उनके ही करके शपथ कहा, "अमर होगा नहीं कभी पिता पथ से विपथ ॥ महाराणा अमर सिंह : ९५