पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/८७

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कथ्य इस परिशिष्ट में वे तीन अप्रकाशित कृतियाँ हैं-जिन्हें 'सरस्वती' में स्थान नहीं मिला। उसके सम्पादक स्व० महावीर प्रसाद द्विवेदी के 'पेंसिलाक्षरो' में उन पर दिनांक और rejected अंकित है। सभी पर मई १९१२ की तिथियां पड़ी हैं । उस समय भी हिन्दी के महारथी वैचारिक स्तर पर अंग्रेजी में अन्तराभिलापन करके अपने विचार हिन्दी मे लिप्यन्तरित करते थे आज भी प्रायः ऐसा होता है : सुतरां, अभिव्यक्ति की ऐसी प्रक्रिया के भी वे महारथी प्रणेता है । द्विवेदीजी अपने खेमे की भीतरी मशालों मे ही तेल देते थे। हिन्दी साहित्य की व्यापक सम्भावनाओं की परिचर्या से वे उदासीन-प्राय रहे। उन मशालों से अधिक प्रकाश वाली कोई मशाल न जल उठे इसकी भी चिन्ना रही होगी। 'सरस्वती' के कारण हिन्दी जगत पर उनका एक आतंक-सा रहा जिसके चलते पुच्छ-संवाहकों की कमी न थी। किन्तु कुछ और विशेषतः काशीवासी लेखक ऐसे थे जिन्हें उनके सम्पादकीय अंकुश का अतिवाद स्वीकार न था। जैसे आचार्य केशव प्रसाद मिश्र आदि और डा० सम्पूर्णानन्द ने तो एक बार स्पष्ट कह दिया था कि मेरी रचना में अपनी कलम न घुसेड़ें, न छापना हो न छापें, यदि मैं हाथ को 'यहा' लिखू तो वैसा ही छापें-बात जब यहां तक बढ़ गई तब काशी के साहित्यकारों से उनका खिन्न होना स्वाभाविक रहा। इधर काशी का 'इन्दु' भी साहित्य जगत को आलोकित करने लगा था। ज्ञातव्य है कि इन rejected रचगाओं के प्रणेता 'इन्दु' के अधिष्ठाता भी रहे। कुछ समय पूर्व यहां द्विवेदी युग पर एक संगोष्ठी भारत कला भवन के तत्त्वा परिशिष्ट-कथ्य : ८७