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था और उसकी विद्वत्ता ऊपर लिखित प्रबन्धों से ज्ञात होती है। युद्धादि के समय में भी भूमि बराबर जोती जाती थी, उसके लिए कोई बाधा नहीं थी। राजकीय सेना में, जिसे राजा अपने व्यय से रखते थे, रणतरी २,००० थी।' ८,००० रथ, जो चार घोड़ों से जुते रहते थे, जिस पर एक रथी और दो योद्धा रहते थे। ४,००,००० पैदल असिचर्मधारी, धनुर्बाणधारी। ३०,००० अश्वारोही। ९०,००० रण-कुंजर, जिन पर महावत लेकर ४ योद्धा रहते थे और युद्ध के भार. वाही, अश्व के सेवक तथा अन्य सामग्री ढोनेवालों को मिलाकर ६,००,००० मनुष्यों की भीड़भाड़ उस सेना में थी और उस सेना विभाग के प्रत्येक ६ विभागों में ५ सदस्य रहते थे। प्रथम विभाग नौसेना का था। दुसरा विभाग युद्ध-सम्बन्धी भोजन, वस्त्र, कपड़े, बाजा, सेवक और जानवरों के चारे का प्रबन्ध करता था। तीसरे वर्ग के अधीन पैदल सैनिक रहते थे। चौथा विभाग अश्नारोहियों का था। पांचवां, युद्धरथ की देखभाल करता था। छठा युद के हाथियों का प्रबन्ध करता था। इस प्रकार सुरक्षित सेना और अत्युत्तम प्रबन्ध से चन्द्रगुप्त ने २४ वर्ष तक भारत भूमि का शासन किया। भारतवर्ष के इतिहास में मौर्य-युग का एक स्मरणीय समय छोड़कर २ ७ ई० पू० में मानवलीला संवग्ण करके चन्द्रगुप्त ने अपने सुयोग्य पुत्र के हाथ में राज-सिंहासन दिया। सम्राट् चन्द्रगुप्त दृढ़ शासक, विनीत, व्यवहार-चतुर, मेधावी, उदार, नैतिक, सद्गुण सम्पन्न तथा भारतभूमि के सपूतों में से एक रत्न था। बौद्ध ग्रन्थ, अर्थकथा और वायुपुराण से चन्द्रगुप्त का शासन २४ वर्षों का ज्ञात होता है जो ३२१ ई० पू० से २९७ ई० पू० तक ठीक प्रतीत होता है। चन्द्रगुप्त के समय का भारतवर्ष : __भारतभूमि अतीव उर्वरा थी; कृत्रिम जल-स्रोत, जो कि राजकीय प्रबन्ध से बने थे, खेती के लिये बहुत लाभदायक थे। प्राकृतिक बड़ी-बड़ी नदियां अपने तट के भूभाग को सदैव उर्वर बनाती थी। एक वर्ष में दो बार अन्न काटे जाते थे। यदि किसी कारण से एक फमल ठीक न हुई, तो दूसरी अवश्य इतनी होती कि भारतवर्ष मान लें तो सम्भव है कि पाटलि-दुर्ग पचास वर्ष के बाद नगर-रूप में परिणत हो गया हो। अनुमान किया जाता है कि ५०० ई०पू० में पाटलिपुत्र बसा था। १. "नदीपर्वतदुर्गीयाभ्यां नदीदुर्गीयात् भूमि लाभः श्रेयान् नदी दुर्गे हि हस्तिस्तम्भसंक्रम-सेतुबन्धनौभिस्साध्यम्'-अथशास्त्र २९४ ।। ___नावध्यक्ष : समुद्रसंयाननदीसुखतर प्रचारान् देवसरोविसरोनदीतारांश्च स्थानीयादिष्ववेक्षेत--अर्थशास्त्र, प्रकरण ४५ । ७६: प्रसाद वाङ्मय