पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/७३

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में यातायात किया करते थे। गंगा के कूल में बने हुये सुन्दर राज-मन्दिर में चन्द्रगुप्त रहता और केवल तीन कामों के लिये महल के बाहर आता पहला, प्रजाओं का आवेदन सुनना, जिसके लिये प्रतिदिन एक बार चन्द्रगुप्त को विचारक का आसन ग्रहण करना पड़ता था। उस समय प्राय: तुरंग पर, जो आभूषणों से सजा हुआ रहता था, चन्द्रगुप्त आरोहण करता और प्रतिदिन न्याय से प्रजा का शासन करता था। __ दूसरा, धर्मनुष्ठान बलि प्रदान करने के लिए, जो पर्व और उत्सव के उपलक्ष्यों पर होते थे। मुक्तागुच्छ-शोभित कारु-कार्य खचित शिविका पर (जो कि सम्भवत खुली हुई होती थी) चन्द्रगुप्त आरोहण करता। इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त वैदिक धर्मावलम्बी था; क्योंकि बौद्ध और जैन, ये ही धर्म उस समय वैदिक धर्म के प्रतिकूल प्रचलित थे । वलिप्रदानादिक कर्म वैदिक हो होता रहा होगा। तीसरा, मृगया खेलने के समय कुञ्जर पर सवारी निकलती उस समय चन्द्रगुप्त स्त्री-गण से घिरा रहता था, जो धनुर्बाण आदि लिये उसके शरीर की रक्षा करता था। उस समय राज-मार्ग डोरी से घिरा रहता था और कोई उसके भीतर नहीं जाने पाता थः । चन्द्रगुप्त राजसभा में बैठता तो चार सेवक आबनूस के बेलन से उसका अंगसंवाहन करते थे। यद्यपि चन्द्रगुप्त प्रबल प्रतापी राजा था, पर वह षड्यन्त्रों से शंकित होकर एक स्थान पर मदा नहीं रहता था, जिसका कि मुद्राराक्षस में कुछ आभास मिलता है, और यह मेगास्थनीज ने भी लिखा है। हाथी, पहलवान, मेढ़ा और गैडों की लड़ाई भी होती थी, जिसे राजा और प्रजा दोनों बड़े चाव से देखते थे। बहुत-से उत्सव भी नगर में हुआ करते थे। १. मैसूर मे मुद्रित अर्थशास्त्र चाणक्य का ही बनाया है और वह चन्द्रगुप्त के ही लिये बनाया गया है, यह एक प्रकार से सिद्ध हो चुका। उसका उल्लेख प्रायः दशकुमारचरित, कादम्बरी तथा कामन्दकीय आदि में मिलता है। उसमें भी लिखा है कि "सर्वशास्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च । कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनाय विधिः कृतः ॥" (७५ पृष्ठ, अर्थशास्त्र) यह नरेन्द्र शब्द चन्द्रगुप्त के ही लिए प्रयोग किया गया है। उसमें चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने के तथा वेदधर्मावलम्बी होने के बहुत-से प्रमाण मिलते हैं। (तृतीय स्नानं भोजनं च सेवेत, स्वाध्यायं च कुर्वीत) ३७ पृ० (प्रतिष्ठितेऽहनि संध्यामुपासीत) ६८ : "ठ, अर्थशास्त्र । 'स्वाध्याय' और 'संध्या' से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त वेदधर्मावलम्बी था और यहां पर वह मुरा शूद्रावाली कल्पना भी कट जाती है, क्योंकि चाणक्य, मौर्यवंश-चन्द्रगुप्त : ७३