पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५७२

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जीवित कवि को तो साधारण मानव, यद्यपि अब अधिमानव पडा समझना । हाय, आज का गौरव यदि वह आँखे अपनी आँखो लख पाती तो कहती, अब भी अधिशतवत्सर इहे लगेगे मेरी कृतियो के अन्तर्दर्शन। गये, गये तुम, सुयश प्रसाद, तुम्हारा युग युग की स्मृतियो के सध्याम्बर मे स्वर्ण दण्ड-स। एक हिरण्य-प्रदर्शन विश्व व्योम का पूर्व प्रकाशित रिने जा पहुँचा नक्षत्रो की टोली म । पांव नही उठते अब तो उस पथ पर, लुटा हुआ सा लोक दिखाई देता, कुटी पिटी सी कातर अभिलाषाएँ घोट घोट अधमरी उमगो के मुह क्रन्दन ही क्रन्दन उर में भर देती। डोर प्रतीक्षा की कट गई सदा को, जो उनके पत्रो, ग्रन्थो के दर्शन यदा क्दा मेरे सुदूर निवसन की एकाकी उन्मनता को देती थी। रोया कर, ओ हीन विश्व अब कवि को, समुचित दण्ड यही है अहृदयता का। तेग वन्दन तसे वना दे कर्मठ, जिससे जीवित कविरत्नो की आभा पाथि प्रियता धूल डाल कर अपनी कर न मके अप्रतिभ । मुधा की बूंदे युग-योजक कवियो के मत्वरसो से रहे सीचती मृत्यु शुष्क मानवता । Lakt... २६८ · प्रमाद वाडमय