पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५४

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होंगे। उन जैसे हितचिंतक के मंगलमय परामर्श का प्रभाव यह हुआ कि तन-मन से मैं अपने व्यवसाय में लग गया और कविता का नशा सर्वथा जाता रहा। कवि एवं साहित्य प्रेमियों के संगति-सुख का शोक आज भी बना हुआ है और जब भी कभी पुराने साहित्य प्रेमी मित्र (जो अब इने गिने रह गये है) मिल जाते हैं तो बरबस मानव मात्र के हितैषी 'प्रमाद' का मंगलमय परामर्श स्मरण हो जाता है और श्रद्धा से उनकी स्मृति में नतमस्तक हो जाता हूँ। x काशी का पाक्षिक कवि सम्मेलन बीसवी सदी के तीसरे दशक की बात है। उम ममय काशी मे नियमित रूप से अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन राय बहादुर श्री बटुक प्रसाद खत्री के निवास स्थान पर एक कवि सम्मेलन हुआ करता था जिममे किसी एक पूर्व निर्दिष्ट समस्या पर कवि लोग अपनी समस्यापूर्ति पढकर मुनाया करते थे। उसमे स्थानीय और बाहर के कवि भी उपस्थित हुआ करते थे। कविता पढी जाती थी- ब्रज भाषा में और खड़ी बोली मे भी। प्रसादजी इस आयोजन में सदा जाया करते पे समस्या पूर्ति भी किया करते थे पर कविता वह स्वयं नही पढने थे। उनके एक स्वजातीय निकटस्थ व्यक्ति श्री दुर्गाप्रसाद गुप्त उनकी कविता पढा करते थे। दुर्गाप्रसादजी स्वयं भी कवि, नाटककार एवं कुशल अभिनेता थे। एक बार उन्होंने अपनी एक कविता सुनाई जिसमें किसी एक कवि पर, जिसमे वे रुष्ट थे घोर आक्षेप और व्यंग्य थे। उनकी कविता से समूचा उपस्थित जन समुदाय क्षुब्ध हो गया और तत्काल उन्हें वहां से निष्कासित कर दिया गया और उनके वहाँ आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस सम्मेलन मे मैं भी प्रसादजी के साथ प्राय: जाया करता था और उक्त घटना के बाद प्रसादजी की रचना मैं ही सुनाया करता था। एक बार ममस्या थी 'पियूष ते सरस है जिस पर प्रसादजी की यह कविता बनी थी-- आवन इठलात जलजात पात कंधों खुली मीपी मांहि मुकता दरसहै कढ़े कंज कोषते कलोलिनोके मीकर सों जान्यो नहिं जात याहि कौन सो हरसहै तातो तातो कढि रुग्वेमन को हरित कर ऐरे मेरे आँसू तू पियूष ते सरसहै । प्रसादजी की यह रचना मैंने आत्म विभोर ही सुनाई और रस विभोर जन समुदाय के करतल ध्वनि देने पर मुझे पांच बार कविता सुनानी पड़ी। फिर भी श्रोताओं का आग्रह हुआ कि एक बार और सुनाई जाय । मैं बेहद थक गया था २५० : प्रसाद वाङ्मय