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जहाज आगे बढ़ रहा था। अचानक वह स्थल सामने आया, जहां गंगा को समुद्र से संगम होता है। एक ओर समुद्र का नीला जल और दूसरी ओर गंगा का लाल जल । प्रसादजी ने मुझे बुलाया और कहा--यह देखो, गंगा और समुद्र का यह मिलन कितना सुन्दर है। वही उनके मुह से निकल पड़ा :-'हे सागर-संगम अरुण नील ।' यह गीत उसी जहाज के डेक पर लिखा गया है। किशमिश वाले दादाजी मेरे ज्येष्ठ पुत्र इन्द्रकुमार प्रसादजी को किशमिश वाले दादाजी के रूप में जानते पुकारते है। जब प्रसादजी कलकत्ते आये तो यह देखा गया कि उनके पास हमेशा किशमिश रखी रहती थी। जब कोई बच्चा आता तो वे उनके मुंह मे थोडी-सी किशमिश डाल दिया करते। जो बाहरी बच्चे यह ख्याति सुनकर आते लेकिन अपरिचित होने पर निकट आने का साहस न करते, उनके लिये प्रसादजी किशमिश फेक दिया करते थे। कुछ जिज्ञासु विद्यार्थियों को भेट कलकत्ता-प्रवाम मे ही एक दिन कालेज के कुछ विद्यार्थी प्रसादजी से मिलने आये । सबसे पहिने उनको भेट मुझसे ही हुई। उन लोगों ने प्रसादजी से मिलने की इच्छा प्रकट की। मैंने उनसे कहा - 'अभी वे अस्वस्थता की स्थिति में है, यदि आप लोग किमी दूसरे दिन पधारे तो अच्छा हो' । पर उन लोगो ने किसी भी रूप मे, एक क्षण के लिए ही उनके दर्शन की इच्छा प्रकट की। मैं बड़े असमंजस मे पड गया। प्रमादजी उन लोगो से मिलना नही चाहते थे। मेरे बहुत कहने पर उन्होने बाहर आना स्वीकार किया। ऊपर से ही वे बरामदे मे निकले-उन्होने उन छात्रो का अभिवादन लिया। छात्रो ने उनसे कहा -'आपमे हम अपनी एक शंका का ममाधान चाहते है, यदि आप कुछ बता सके तो बड़ी कृपा होगी। आंसू के 'शशि मम्ख पर घघट डाले, अंचल में दीप छिपाये, जीवन की गोधूली मे कौतूहल से तुम आये' छन्द का अर्थ हम लोग आपके मुख से सुनना चाहते है। प्रसादजी ने बड़ी विनम्रता से उनसे कहा-'इस समय मैं इसका अर्थ बता सकने में असमर्थ हैं. मैंने जिस भावस्थिति में इस छन्द को लिखा, वह स्थिति इस समय मेरी नही है । इसलिये आप लोग क्षमा करे। इसका समाधान आप लोगो के विद्वान अध्यापक मुझसे कही अच्छे रूप मे कर सकेगे'। यह सुनकर छात्रों ने कहा-आप तो शेक्सपियर की भांति उत्तर देते हैं'। प्रमादजी ने कहा--'भाई, मैं तो संगरेजी जानता नही-शेक्सपियर ने क्या उत्तर दिया था, यह भी नही जानता। आप लोग तो मुझसे कही अच्छी अंगरेजी जानते है । इसके बाद छात्रो ने बड़ा हल्ला मचाया और फिर वे चले गये। प्रमादजी ने उम छन्द के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा । २४६ : प्रसाद वाङ्मय