पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भोजन-व्यंजन में अरहर की दाल उन्हें सर्वाधिक प्रिय थी। किन्तु अस्वस्य होने के बाद वे मूंग की दाल खाने लगे। पोशाक ईसवी संवत् १९१७-१८ का प्रसंग है जब कि मैं काशी गया। शीतकाल के दिन थे और भयावह ठंड बढ़ रही थी। इस काल में जब दूकान जाने को वे तैयार होते तो ऐसा लगता जैसे कोई राजा, नवाव या रईसे-आजम सांध्य वायू-सेवन को या दरबार में जा रहा हो। सर पर रोथेदार बड़ी टोपी, भव्य ऊनी शेरवानी और चूड़ीदार पैजामा-पैर में पंप जते। हाथ में सुन्दर छड़ी। मुख्य द्वार पर लण्डो आकर खड़ी होती और उसमें सवार होकर वे दूकान जाते। वे बाद में खादी के सादे वस्त्र धारण करने लगे। भांग पियले हौ कलकत्ते में कुछ समय स्व० पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र तथा वैसे ही कतिपय साहित्यकारों के समागम से मुझे भंग पीने का व्यसन हो गया था। कुछ कविताएं भी लिखी थी इसलिये मैं काशी गया ताकि उन रचनाओं को उन्हें दिखाऊं। शाम को मैंने भंग पीने की इच्छा प्रकट की। कलाने में एक पैसे की (वह पैसा जो एक रुपये में ६४ होते थे) भंग पीकर मुझे परम सन्तोष होता था। काशी में भी मैंने यही कहा कि एक पैसे की भांग मेरे लिये पर्याप्त है। एक पैसे की भांग आयी और मैंने उसका भोग किया। परिणाम यह हुआ कि नशा तीव्रतर हुआ और मैं सुध-बुध खो बैठा। भोजन के लिये गया तो खाता ही रहा । स्त्रियों के शंका प्रकट करने पर प्रसादजी ने कहा---'भांग पियले हौ, बौराय गैल हो।' वास्तविकता यह थी कि उस समय काशी में एक पैसे की भांग उतनी ही मिलती थी जो कलकत्ते में पांच पैसे में मिलती थी । यह पांचगुनी भाग का प्रभाव था। प्रसादजी ने नाड़ी की गति देखी और सुराही का सारा ठडा जल मेरे सर पर डाल दिया। उससे नशा तो कम अवश्य हुआ किन्तु मैं दूसरे दिन शीतज्वर से पीड़ित हो गया। सेवा-सुश्रूषा सभी प्रसादजी स्वयं करते थे। उसी दिन से भांग का पीना सवंदा के लिये समाप्त हो गया । हाल एण्डरसन और भकुण्डरसन 'प्रसाद'जी कितने विनोदी और प्रत्युत्पन्न मति वाले व्यक्ति थे, इसका उदाहरण मेरे साथ घटी एक घटना द्वारा लग जाता है। जाड़े का दिन था। 'प्रसाद'जी के साथ मैं दशाश्वमेध घाट पर गंगा के किनारे हल रहा था। अचानक उनकी दृष्टि मेरे चेस्टर पर पड़ी। लगे हाथ वे पूछ बैठे-तुमने यह चेस्टर कहाँ सिलवाया, बड़ा अच्छा सिला गया है ?' मैंने कहा-"भइया, इमकी सिलाई कलकत्ते में हुई है, वहां संस्मरण पर्व : २२१