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सर्गो के छपे हुए फर्म थे। जब तक उनका वाचन समाप्त हुआ, उस वर्षा एवं शरद की सन्धिकालीन संध्या के वातावरण में एक रसमयी निस्पन्दता व्याम हो गयी थी। कुछ क्षण तक मौन छाया रहा। फिर निराला जी के शब्द-स्वर मुखरित हो उठे"आधुनिक हिन्दी के महाकाव्य का अवतरण हो चुका है। हिन्दी का यह स्वर्णयुग अपने पूर्ण प्रकर्ष पर है।" उन क्षणों के उल्लास को शब्दों में बांध पाना मेरे लिए संभव नहीं है। हमें युग के दो श्रेष्ठ कवियों के, एक साथ काव्य-पाठ-श्रावण का अनुपम सुअवसर प्राप्त हुआ था। काव्य-पाठ का दौर समाप्त होने के पश्चात्, कुछ देर तक प्रसादजी हम लोगों के साथ आत्मीयतापूर्ण वार्तालाप करते रहे। वे वहाँ उपस्थित परिचित-अपरिचित, सबके सगे प्रतीत हो रहे थे। वह ज्योतिर्मयी, हिरण्यमयी सन्ध्या मेरी स्मृति में अमर बन गई है। जब भी कभी उसकी याद आती है प्रसादजी द्वारा उस दिन पढ़े गये 'कामायनी' के अंश की ये पंक्तियां स्वतः स्फुटित हो उठती हैं समरस थे जड़ या चेतन, सुन्दर साकार बना था। चेतनता एक विलसती, आनन्द अखण्ड बना था । x प्रतिफलित हुईं सब आँखें उस प्रेम ज्योति विमला से । सब पहचाने से लगते अपनी ही एक कला से ॥ x xx सब भेदभाव भुलवा कर दुःख सुख के दृश्य बनाता । मानव कह रे ! यह मैं हैं, यह विश्व नीड़ बन जाता ।। उस रागमयी सन्ध्या को, प्रसादजी की दिव्य-वाणी में उपनिषदों का सार-तत्व विद्यमान था। इन्हीं दिनों साहित्यिक क्षेत्र में एक चिन्ताजनक समाचार फैल गया कि प्रेमचंद जी बहुत अस्वस्थ हैं। वे लखनऊ से लौट आये हैं। वहां के डाक्टरों ने उनके स्वास्थ्य के संबंध में आशा का संचार करनेवाला कोई विशेष आश्वासन नहीं दिया है। उनकी हालत गिरती जा रही थी। निरालाजी को प्रसादजी से उनके निरंतर गिरते हुए स्वास्थ्य का समाचार मिला, तो वे अत्यन्त व्यथित हुए। 'गीतिका' गीत-संग्रह और 'निरुपमा' उपन्यास दोनों प्रकाशित हो चुके थे । अब वे लखनऊ लौट जाना चाहते थे। लखनऊ जाने के पहले वे 'प्रेमचंद' जी से मिलने गये । निराला जी ने देखा, प्रेमचंद जी नितान्त आशक्त हो गये है। पेट फूला हुआ है, हाथ उठाकर प्रणाम का उत्तर देने में भी कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं तथा कठिनाई से आँखें खोल पा रहे हैं। संस्मरण पर्व : २०३