पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०६

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कर समारोह में अवश्य पधारेंगे। प्रसादजी ने मेरी बातें बड़े ध्यान से सुनीं। फिर सहज मुसकान के साथ बोले-'मैं अवश्य चलता।' फिर, पिछले किसी अवसर का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा-'एक बार में विश्वविद्यालय के एक सार्वजनिक समारोह में गया था। सभा में छात्रों का सीटी बजाना, चिड़ियां उछालना आदि अशिष्ट और असांस्कृतिक व्यवहार देख मुझे बड़ी ग्लानि हुई। तभी से मैंने प्रतिना कर ली कि मैं किसी भी सार्वजनिक समारोह में नहीं जाऊंगा । किन्तु अब आप जैसा कहें, मैं वैसा ही करूंगा। हां, यदि आप मुझे समारोह में ले जाने का हठ न करें, तो मैं आपसे वायदा करता हूँ कि निराला जी के लखनऊ से वापस आने पर मैं आपके घर आकर 'कामायनी' के कुछ अंश सुनाऊंगा। मुझे तो जैसे बड़ा भारी वरदान मिल गया। मैंने लोटकर अपने मित्रों से सारी बात बतायी। प्रसादजी के समारोह में न आने की बात से वे सब खिन्न तो अवश्य हुए, किन्तु वे मुझसे यह वचन लेकर संतुष्ट हो गये कि प्रसादजी के मेरे घर आकर कामायनी के अंश सुनाने के सुअवसर पर मैं उन्हें भी आमन्त्रित करूंगा। ____भारतेन्दु जयन्ती समारोह आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की अध्यक्षता में धूम-धाम से संपन्न हुआ। वाजपेयी जी का बड़ा ओजस्वी तथा बिद्वत्तापूर्ण भाषण हुआ। खराब स्वास्थ्य के कारण मालवीय जी यद्यपि स्वयं समारोह में उपस्थित न हो सके, किन्तु उनका लिखित शुभकामना संदेश मिला। ___ इसके कुछ दिनों बाद निरालाजी लखनऊ से लौट आये। वे प्रायः प्रतिदिन या दूसरे-तीसरे प्रसादजी से मिलने जाया करते थे। एक दिन वे यह सन्देश लेकर आये कि आज सायंकाल प्रसादजी आयेगे। मैंने तत्काल जानकी वल्लभ शास्त्री परमानन्द वाजपेयी, ब्रह्मदत्त 'शिशु' शिवनारायणलाल श्रीवास्तव, लक्ष्मीनारायण मिश्र 'संचय', वाचस्पति पाठक, आदि मित्रों को इसकी सूचना दे दी। फिर निरालाजी के निर्देशन में प्रसादजी के स्वागत-सत्कार की आवश्यक तयारी हुई। सायंकाल तक मेरी समस्त मित्र-मण्डली वहां पहुंच चुकी थी। पं० वाचस्पति पाठक जी पड़ोस में ही रहते थे। उन्होंने अपने किसी चुनिन्दा पानवाले से पान की गिलौरियां मंगायीं। यथा समय प्रसादजी पधारे। छत के ऊपर एक छोटी-सी विशिष्ट सभा जुड़ी। सबसे पहले जानकी वल्लभ शास्त्री ने अपनी बाल-पिक वाणी में, अपने कुछ गीत गाकर सुनाये। फिर हमारी मित्र-मण्डली में जो कवि थे 'उन्होंने अपनी रचनाओं का पाठ किया। निराला जी ने अपनी रचना 'तुलसीदास' के कुछ अंश सुनाये। फिर अपने कुछ नये गीत गाकर सुनाये। सबसे अन्त में प्रसादजी ने अपने सधे, संयत, भावपूर्ण उतारचढ़ाबबुक्त, ललित-गम्भीर, उदात्त स्वर में 'कामायनी' के अन्तिम दो सर्गों का वाचन किया। अपने सुमधुर वाचन द्वारा उन्होंने 'कामायनी' के अन्तिम दो सर्गों के भाववैभव से हम सबको अभिभूत कर दिया। उनके हाथ में 'कामायनी' के अन्तिम दो २०२ : प्रसाद वाङ्मय