पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०५

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हिन्दी-समिति का मंत्री था। डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल इसके अध्यक्ष तथा बाबू साहब संरक्षक थे। मैं डॉ० बड़थ्वाल तथा अन्य मित्रों से विचार-विमर्श कर बाबू श्यामसुन्दरदासजी के पास भारतेन्दु जयन्ती मनाने हेतु अनुमति लेने गया। अपनी पूर्व घोषणा के बावजूद हमारी भावनाओं का खयाल करते हुए बाबू साहब ने अपनी तरफ से इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी, किन्तु साथ ही यह भी कह दिया कि यदि बीच में कोई व्यवधान आये तो मेरे पास न आना। बाबू साहब की आशंका सच थी, इसका भान हमें जल्दी ही हो गया। हम भारतेन्दु जयन्ती मनाने हेतु कालेज का बड़ा हाल प्रदान करने संबंधी प्रार्थनापत्र लेकर, जूते बाहर निकाल, नंगे पांव प्रिसिपल साहब के कमरे में गये । प्रिंसिपल साहब को हमारा प्रार्थनापत्र अस्वीकार करने मे एक क्षण का भी समय नहीं लगा। उन्होंने अंग्रेजी में लिखा-हाल नहीं दिया जा सकता। निराशा के साथ हमें बाबू साहब का भय भी सता रहा था। हम लोग प्रो० वाइसचांसलर महोदय के पास भी गये। उन्होंने भी प्रिंसिपल साहब के आदेश में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं समझी। कुलपति महामनाजी के पौत्र, जिनका नाम संभवतः शशिकान्त था और जो उन दिनों अंग्रेजी मे एम० ए० कर रहे थे, के सहयोग से हम किसी प्रकार मालवीय जी तक पहुंचने में सफल हो गये । महामना जी की उस समय की वात्सल्यमयी मुद्रा एवं उनके नेत्रों से छलकता असीम स्नेहभाव हमें अभिभूत कर गया। मुझे लगा जैसे परम शुभ्र वसन धारण किये हुए साक्षात् सतोगुण मूतिमान हो हमें अपने अशीर्वाद से अभिसिक्त कर रहा हो। हमने अपनी समस्या बताते हुए प्रिसिपल साहब द्वारा अस्वीकृत किया जा चुका प्रार्थना-पत्र मालवीय जी के हाथ में दे दिया। महामना ने प्रिंसिपल के आदेश को पढ़ा। फिर उसे काटकर अपनी ओर से आदेश लिखा"वह हाल यथासमय भारतेन्दु-जयन्ती के लिए खोल दिया जाय, मैं स्वयं इस सभा में उपस्थित रहूंगा।" उक्त आदेश को पढ़कर हमारे हर्ष की सीमा न रही। इसकी जानकारी होने पर बाबू साहब ( आचार्य श्यामसुन्दर दास ) का रोष भी शान्त हो गया। अब समस्या उठ खड़ी हुई कि भारतेन्दु-जयन्ती की अध्यक्षता कौन करे । पहले यह शुभ कार्य महाकवि निराला द्वारा सम्पन्न होना था, किन्तु अपरिहार्य कारणों से वे एकाएक लखनऊ चले गये थे। अब शिवनारायणलाल श्रीवास्तव जैसे सब मित्रों ने मुझसे कहा-'आप प्रसादजी के स्नेहभाजन हैं, आप उन्हें इस समारोह में ले आयें।' मैंने पहले ही सुन रखा था कि वे सार्वजनिक समारोहों में नहीं जाते। फिर भी, साहस बटोरकर मैं प्रसादजी के पास गया और उनसे समारोह में चलने का अनुरोध किया। मैंने उन्हें बताया कि विभाग के छात्रों के प्रतिनिधि के रूप में मैं आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ। मेरे सहयोगियों को पूर्ण विश्वास है कि आप मेरा अनुरोध स्वीकार संस्मरण पर्व : २०१