पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०१

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खेल में किसी असावधान चाल के कारण अपनी हार देखकर चाल लौटा देने के लिए वे बाल हठ कर बैठते और विपक्षी खिलाड़ी के विरोध को दरकिनार कर चाल लोटाकर ही दम लेते हैं । इस प्रकार चाल लौटाकर तत्काल पराजय को तो वे टाल जाते हैं, पर अन्ततः अपनी हार नहीं बचा पाते । दूसरी बार बिसात बिछे, इसके पूर्व ही प्रसादजी की दृष्टि मुझ पर पड़ी। थोड़ेथोड़े अन्तराल पर, एक-एक कर कई प्रश्न उन्होंने मुझसे पूछ डाले-'कहाँ से आये हैं ?' 'सीतापुर से।' आने का प्रयोजन? मैंने बताया कि लखनऊ विश्वविद्यालय में एम० ए० की पढ़ाई की व्यवस्था न होने से हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहता हूँ। तबतक बिसात फिर विछ चुकी थी। फिर पूछा, 'आपका नाम क्या है ?' 'चन्द्रप्रकाश सिंह मैंने बताया । मेरा नाम सुन कुछ क्षण वे मौन रहे, फिर सिर उठाकर मुस्कुराते हुए बोले-"आप कुंवर चन्द्रप्रकाश सिंह हैं ?" मेरे 'हाँ' कहते ही उनके मुखमण्डल पर उन्मुक्त हास्य की छटा खिल उठी उन दिनों मेरे गीत 'माधुरी' 'सुधा' आदि में मुख पृष्ठ पर प्रकाशित होते थे मेरे साथ बात करने की वजह से प्रसादजी की बाजी गड़बड़ा गयी और उनका वजीर कट गया। इस पर 'फिर बाद में खेलेंगे' कह र प्रसादजी ने खेल समाप्ति की घोषणा कर दी। मेरी ओर मुखातिब हो हंसते हुए बोले-"आपकी कविताएँ में पढ़ता रहता हूँ। पर आप चले कहाँ गये थे ? आपको खोजते हुए आपके पिताजी, निरालाजी का पत्र लेकर मेरे पास आये थे। वे कई दिन यहाँ मेरे पास ठहरे थे। मैंने आपकी काशी भर में खोज करवायी थी।" (प्रसादजी ने निरालाजी के जिस पत्र की चर्चा की वह अब प्रसादजी के पत्र-संग्रह में प्रकाशित हो चुका है) कुछ देर तक उनके पास बैठकर और प्रसादस्वरूप सुमिष्ठ सत्कार का आस्वादन कर मैं वहीं से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय चला गया। x काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर मैं दुर्गाकुण्ड से नवाबगंज जानेवाली सड़क पर एक मकान लेकर रहने लगा। नवाबगंज में स्व. पं० वाचस्पति पाठक का घर था, जिनसे पहले ही मेरे संबंध जुड़ चुके थे। पाठकजी स्व० रायकृष्णदास के 'भारती भण्डार' के व्यवस्थापक थे। उन दिनों भारती भण्डार में निरालाजी के दो ग्रन्थ-'गीतिका'-काव्य-संग्रह तथा 'निरुपमा'-उपन्यास प्रकाशित हो रहे थे। इसलिए निरालाजी भी उन दिनों काशी में ही थे। आरंभ में कुछ दिन पाठकजी के साथ रहकर वह मेरे यहां आकर रहने लगे। 'गीतिका' के अन्तिम छः गीत तथा 'निरुपमा' का अन्तिम अंश उन्होंने मेरे यहां रहकर ही लिखा था। 'राम की शक्ति-पूजा' की प्रथम दो पंक्तियां भी वहीं लिखी गयी थीं। अब तो मैं प्रायः, निरालाजी के साथ, प्रसादजी के दर्शनार्थ जाने लगा। संस्मरण पर्व : १९७