उपर्युक्त अनुरोध किया था। 'सब, आपने क्या निश्चय किया ?-पूछते हुए कृष्णानन्द उनकी ओर देखने लगे। जिसमें एक मूक आग्रह भी था -अनुरोध मान लेने का। प्रसादजी उनका भाव समझ गए-एक लम्बी सांस के साथ उनका उत्तर था -'बहुत ऋण-शोधन किया है, कृष्णानन्द जी। अब किसी का ऋण लेकर नहीं जाना चाहता।' एक दिन नवीनजी प्रसादजी को देखने कानपुर से आए। यद्यपि नवीनजी खड़ी बोली की कविता के उस दौर वाले कवि थे जो आचार्य द्विवेदीजी की देन है, फिर भी भावुक होने के कारण और प्रसादजी की शैली में पैठ के कारण उनको वे महाकवि और साहित्य-स्रष्टा मानते थे और उन्हें बहुत ऊंची दृष्टि से देखते थे। कानपुर लौटने पर 'प्रताप' मे अपनी ओजस्वी भाषा में बहुत ही संवेदना- पूर्ण अग्रलेख लिखा जिसमें प्रसादजी पर विशद और भावपूर्ण विवेचन था, अन्त में उनके स्वस्थ्य-लाभ की कामना भी। उसे देखकर प्रसादजी ने मुझसे कहा कि नवीनजी ने तो जीते-जी मार डाला मुझे। इस रूप में उन्होंने उस संवर्द्धना के प्रति आभार प्रगट किया। किन्तु वास्तविकता थी कि बालकृष्ण जी को अवगत हो गया था कि मामला बेढब है। एक दिन जब मैं प्रसादजी के पास गया तब उन्हें उदास पाया। 'क्यों क्या बात है ?' --मैंने चिन्तित होकर पूछा। उन्होंने कहा कि आज उमाप्रसाद से बच्चा का झगड़ा हो गया । 'क्या करूं, मैं तो-पंगु भयो मृगराज आज नखरद के टूटे-होकर पड़ा हूँ नहीं तो एक क्षण में उमाप्रसाद की अकिल दुरुस्त कर देता।' मैंने उन्हें समझा-बुझा कर शान्त किया। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन को प्रसादजी की मुमूर्ष दशा का पूरा पता था। उन्होंने उनको देखने की इच्छा प्रकट की। भाई मैथिलीशरण और मैं उन्हें लेकर प्रसादजी के यहाँ गए। राजर्षि बहुत समझदार थे। वह कुछ देर उनके पास बैठे किन्तु बातचीत करके उन्हें कष्ट नहीं दिया। बाहर आने पर कहा-'कामायनी का मनन कर चुका हूँ, वह मंगलाप्रसाद पुरस्कार के योग्य है, आगामी वर्ष का पुरस्कार उन्हीं को मिलेगा। तुम प्रसादजी को इसकी सूचना दे आओ।' कमरे में जाकर जब मैंने यह समाचार सुनाया, तव अपना दाहिना हाथ उठाकर उन्होंने जिस निस्संग भाव से यह समाचार ग्रहण किया उससे स्पष्ट था कि कितना आपूर्यमाण हृदय था उनका । ११ नवम्बर को पूर्वाह्न मैं उनके पास गया। स्वरभंग तो हो ही चुका था, अब बोलने में भी कष्ट होता था, अतएव मैने बात करने का यह रास्ता अपनाया कि कि उन्हें बोलना न पड़े। वह ध्यानपूर्वक सुनते रहे । मेरे कथन का ढंग ऐसा था कि उन्हें बीच में बोलने का कष्ट न करना पड़ा। उसी दिन सन्ध्या की गाड़ी से मुझे प्रयाग जाना था। १२ या १३ तारीख को भाई मैथिलीशरण के 'साकेत' पर उन्हें मंगलाप्रसाद पुरस्कार मिलने वाला था। १४ की सबरे वाली गाड़ी से लौटकर, उनसे मिलकर प्रयाग का पूरा वर्णन सुनाने की बात कहकर मैंने विदा ली। किन्तु १४ का १९४: प्रसाद वाङ्मय
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