पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- देखकर कविता पाठ करने के उपरान्त उनके निकट,जा बैठे। 'अन्छा, गुप्त अभिनन्दन मे कितने ही गुप्त प्रकट हो रहे हैं'-अपने रहस्यमय स्मितपूर्वक प्रसादजी ने उनसे कहा। इसके बाद दो तीन दिन तक अन्य कार्यक्रम थे जिनमें भदैनी के तुलसी पुस्तकालय वाले कार्यक्रम में भी प्रसादजी ने कविता पाठ किया था। साधारणत. प्रमादजी कवि-सम्मेलनो और गोष्ठियों मे काव्य पाठ नही करते थे। इस अवसर के अतिरिक्त केवल चार-पांच मुझे याद है -१९१५ मे भारतेन्दु जयन्ती पर, १९२३ मे तुलसी त्रिशती पर, १९२९ मे कोशोत्सव समारोह पर उमके बाद मालती शारदा सदन मे विवशत. उन्हे सुनाना पड़ा। अब १९३६ के अन्तिम महीने आए। लखनऊ में एक बडी प्रदर्शनी हो रही थी। प्रसादजी उमे देखने के बडे इन्छुक थे। एक दिन हमलोग अय्यरजी के खादी भण्डार गये, वहां सुनहले रग की रेशम की सुन्दर छीट पर प्रमादजी लहालोट हो गए। मुझसे कहा कि इस छीट का रूईदार लबादा और कन्टोप हमलोग बनवाएं और उसे लखनऊ प्रदर्शनी मे पहने, बस लोग प्रदर्शनी के बदले हमलोगों को देखने लगेंगे। लखनऊ यात्रा के लिए वह मुझसे बराबर आग्रह कर रहे थे। मैंने बहुत कुछ स्वीकृति दे भी दी थी। दिन निश्चय हो गया। किन्तु, उसके एक दिन पहले चि० आनन्दकृष्ण को गलसुआ निकल आया जिसके कारण ज्वर भी हो गया । मेरा जाना असम्भव हो गया। वह अकेले ही लखनऊ गए। कैमी विडम्बना है कि १९१६ ई० के दिसम्बर मे मै उन्हे लखनऊ ले जाना चाहता था परन्तु वह न गए। और, इसके ठीक बीरा वरस बाद दिसम्बर १९३६ मे जब वह मुझे लखनऊ ते जाना चाहते थे तब मैं न जा सका। वहाँ स्व० दुलारे ताल भार्गव के सयोजकत्व मे एक कवि सम्मेलन का आयोजन था। भाई मैथिलीशरण उन्ही के अतिथि थे। उन्होने भार्गवजी गे कहा-'प्रमादजी के स्थान पर जाकर उन्हे आग्रहपूर्वक आमन्त्रित करना तुम्हारा कर्तव्य है।' उन्होने उत्तर दिया -'निमन्त्रण पत्र तो भेज दिया गया है।' मैथिलीशरण ने पुनः कहा-'यह पर्याप्त नही है, तुम्हे स्वयं वहाँ जाना चाहिए।' किन्तु दुलारेलाल जी, प्रसाद जी से बुरा मानते थे। यद्यपि उन्होने कहा कि अच्छी बात है, परन्तु वह गये नही। जब मैथिलीशरण मम्मेलन के मण्डप-द्वार पर पहुंचे तब उन्होंने भार्गवजी से पूछा- 'तुम प्रमादजी के यहां से हो आए ।' उन्होने कहा-- 'मैं न जा सका, कहाँ-कहां जाऊँ।' फलतः मैथिलीशरण भी उस कवि सम्मेलन मे सम्मिलित नहीं हुए। लखनऊ मे लौटने पर एक सन्ध्या को मेरे यहाँ पं० श्री नारायण चतुर्वेदी ने प्रसादजी को कुछ सुनाने को कहा। वे चतुर्वेदी जी को अपनी नवीनतम कविताएं सुनाते जाते थे और बीच-बीच मे खांसी आने लगती तथा कफ भी निकलता। फिर भी समा अच्छा बंधा और चतुर्वेदीजी बहुत ही प्रमुदित हुए। उनके चम्वे जाने पर मैंने प्रमादजी से कहा 'खासी तो बहुत बढ़ गई है।' उन्होंने - १९०: प्रमाद वाङ्मय