पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

क्या करोगे तुम, कीचड़ तो उछाल ही चुके हो, अब पानी भी उछाल लो- मुस्कुरा कर प्रसादजी ने कहा और घाटिये की चौकी पर चुपचाप बैठ गये। स्नान करके घर लौटते समय रास्ते भर हम लोग मौन रहे। प्रसादज़ी की मनोव्यथा का अनुभव करके मैं भी कुछ बोल न सका। घर के फाटक तक पहुंचकर उन्होंने चुपचाप नमस्कार किया और लौट गये । यद्यपि हमलोगों में कोई दुराव न था, तथापि इस बार इस अप्रिय प्रसंग की कोई चर्चा न हुई। गुप्तजी जब काशी आते, प्रसादजी नित्य आते और आमोद-प्रमोद चलता। और, कम से कम एक बार अपने घर पर सुस्वादु भोजन उन्हें अवश्य कराते। इस बार वे एक दिन भी न आए, निमन्त्रण का तो प्रश्न ही नहीं। लौटने के एक दिन पूर्व गुप्तजी नागरी प्रचारिणी सभा गये, मैं तो सदैव साथ रहता था, संयोग से प्रसादजी भी वहां थे। उनसे गुप्तजी ने कहा-'जयशंकर, मैं कल चिरगांव जा रहा हूं।' उन्होने केवल नमस्कार कर लिया। यद्यपि गुप्तजी बीच-बीच में यहां आते रहे किन्तु पौने, दो बरस अनबोला बना रहा। श्री वाचस्पति पाठक इस बिलगाव पर हृदय से व्यथित हुए और वे इसके निराकरण में निरन्तर लगे रहे । अन्त में वे सफल भी हुए। १९६२ की जाड़ों में उन दोनों जनों का मिलन करा ही दिया। १९३४ मे भारती कला के विद्वान स्व० मोतीचन्द लन्दन से लौटे थे, वे मेरे निकट सम्बन्धी भी थे। वे प्रसादजी की निकटता के बहुत अभिलाषी थे। जब मैंने उन्हें प्रसादजी से मिलाया तब प्रसादजी ने मुस्कुराते हुए कहा-'मैं तो तुम्हारे चाचा के साथ पढ़ा हूं, फिर मुझे तुम्हारे परिचय की क्या आवश्यकता।' तो प्रसादजी की दुकान पर वह प्रायः नित्य सन्ध्या जाने लगे। उनकी बातें साहित्यिक न होकर बनारस की पुरानी रंगीनियत पर होती। डा० मोतीचन्द्र के शब्दों में-'प्रसादजी आगे बढ़ते हुए दुनिया के विरोधी न थे, पर आमोद प्रमोद के नए साधनों के सामने जब वे पुरानी कला और शिल्पों को मरते हुए देखते तब दुखी उठते ।' एक दिन मोतीचन्द से प्रसादजी ने कहा, हंसी में-'भाई तीन पुश्त का अपना कारबार छोड़ दिया।' डा० साहब ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया -'प्रसादजी, पुरखे इतना कमा रहे है कि दो चार पीढ़ी बिना कविता किए काम चल जायगा।' प्रसादजी खिलखिला उठे। कुछ मित्रों ने मोतीचन्द को एक फिल्म कम्पनी चलाने का परामर्श दिया और पूरा आर्थिक योगदान का विश्वास भी। इस प्रकार 'मटराज फिल्म्स' प्रस्तुत हो गई । जब कथानक की आवश्यकता पड़ी तब डा० साहब ने प्रसादजी से कहा कि.आप कोई रचना कर दीजिए। इस पर वे 'इरावती' लिखने को प्रस्तुत हुए। उसके कथानक में ऐसे स्थल रखे गए हैं जो फिल्म में खिल उठते यथा-कलिंग राज का गज-घटा के साथ युद्ध-प्रस्थान, इसमें , १८८ :प्रसाद वाङ्मय