पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८८

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विषय में प्रसादजी से उन्होंने कोई विशेष जिज्ञासा न की। उस समय कवि गुरु ने मौके पर बात केवल इतनी कही कि-'हर भाषा की अपनी एक विशेषता होती है। हिन्दी में 'हट' और 'पन' प्रत्ययान्त शब्द जैसे घबराहट, लड़कपन बंगला में नहीं है, और यह अभाव हम लोगों को बहुत खटकता है। किन्तु, एक भाषा का परिधान दूसरी भाषा नहीं पहन सकती'। थोड़ी देर बाद हम लोग लौटे और मार्ग में मैंने उनसे यह कहा कि हर भाषा में शब्द ऊपरले और निचले दोनों स्तरों से बनते हैं। १९२५ ई० के दिसम्बर में कांग्रेस का अधिवेशन था। वहाँ मैंने खादी पहनने का व्रत लिया। जनवरी के प्रथम सप्ताह में घर लौटा और प्रसादजी को भी खादी- धारण के लिए सहमत कर लिया। उन्होंने बड़े उत्साह से खादी पहननी आरम्भ कर दी। इसके दो-चार दिन बाद ही वे माघ में त्रिवेणी स्नान के लिए प्रयाग गये । एक किराये की बस में बीस-पच्चीस मित्र मण्डली गई थी। दारागंज में मेरा ननिहाल था और मेरे मामाजी से प्रसादजी की खूब पटती थी क्योंकि वह मस्त और उदात्त स्वभाव के थे। सन्ध्या समय खादी भण्डार जाकर कुर्ते के लिए अच्छे किस्म का अमरसी रंग का पश्मीना पसन्द किया और वहीं के दर्जीखाने में सिलने के लिए दे दिया। दूसरे दिन जब उसे लेने वहां गये तब क्या पाया कि कुर्ता उनकी पउली तक पहुंचता था। कुर्ता क्या बना था, फकीरों का कफनी था। खैर, बिना कुछ कहे सुने बिल चुकाकर उसे ले लिया। काशी लौटने पर उस कुर्ते को मुझे देकर बोले कि शायद तुम्हे ठीक हो। पहनने पर वह मुझे भी अतिरिक्त लम्बा निकला, अतः मैंने दर्जी से कटवा-छंटवा कर अपने नाप का करा लिया। बहुत दिनों तक वह कुर्ता मेरा प्रिय पहनावा रहा। कपड़े की उत्तमता और प्रसादजी की प्रसादी के कारण उसपर मेरा दोहरा प्रेम था। मुझे खेद है कि मैं उसे सुरक्षित न रख सका। इसके बाद ही भाई मैथिलीशरण वनारम आये, क्योंकि फरवरी में मेरी बड़ी लड़की की शादी थी। तब तक वह मिलमेड कपड़े पहनते थे। प्रसादजी ने उन्हें अपना चेला बनाया। उनकी यह बनियई दलील चल न पाई कि खादी महँगी पड़ती है। प्रसादजी ने सहास कहा- 'क्या भारत भारती इसी लचर दलील के लिए लिखा था।' १९२६ के मार्च में मेरी बड़ी लड़की का विवाह हुआ। प्रमादजी ने न दिन को दिन समझा, न रात को रात । बरावर प्रबन्ध में लगे रहे । मैं कुछ करता-धरता नहीं था। उनके यहां एक इतनी बड़ी दरी थी कि जितनी काशी में और कहीं न थी। चार मजबूत पेशराज उसे रस्से से बांधकर बांस के सहारे कंधे पर रखकर कहीं ले जाते थे। वह दरी भी उन्होंने मेरे लम्बे-चौड़े आंगन में बिछवा दी थी। और दिन तो सकुशल बीते, प्रीतिभोज 'बड़हार' के समय मेरे समधी इम बात पर अड़ गये कि मेरे एक चचेरे भाई जो उनके बहनोई भी थे, उनके संग बैठकर भोजन करे । मेरे भाई साहब का कहना था कि अपने ही आंगन में अपनी ही भतीजी के ब्याह में कैसे १८४: प्रसाद वाङ्मय