पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७८

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संगीतमुच्यतेः। उन परिवारों में कुछ ऐसी युवतियां भी होती थीं जो संगीत प्रवीण होकर केवल भले घरों के स्त्री समाज में अपनी कला प्रस्तुत करती थीं। जब किसी बड़े घर में कोई शुभकार्य या उत्सव होता तब उस मांगलिक वातावरण को अन्तःपुर में मुखरित करने के लिए ये बुलाई जातीं। कभी-कभी तो प्रभुदित महिला मण्डली सारी रात जागी रहती, उसे रतजगा कहा जाता। मांगलिक अवसरों के अतिरिक्त वर्षा-वसन्त में भी ऐसे समारोह हुआ करते । इसी प्रकार के किसी आयोजन में प्रसादजी के घर में एक रूपसी युवती का प्रवेश हुआ। उसकी कला एवं अदा ऐसी लुभावनी थी कि वह अक्सर बुलाई जाने लगी। उसका नाम था श्यामा। ऐसे अवसर भी आए कि प्रसादजी की निगाह उस पर पड़ी और उसकी रसभरी आयत आंखों ने उन्हें आकृष्ट कर लिया-निगाहें चार होती हैं, मुहब्बत आ ही आ ही जाती है'-चरितार्थ हुआ। भगवान ने उसे सूरत के साथ-साथ सीरत भी दिया था। वह निस्सन्देह प्रेमपरायणा थी, अर्थपरा- यणता नाममात्र ही। प्रसादजी के भवन के सामने ही एक विस्तीणे कच्चा चबूतरा पा, उसके बीच में थी एक छोटी-सी सुबुक बंगलिया। रंग-विरंगे सुन्दर-सुन्दर फूलपत्तियों वाले गमलों से वहां बहुत रमणीयता रहती। उसी मे उसे वास मिला। उन दिनों अधिकांश कुलांगनाओं की मनोवृत्ति यह थी कि यदि उन्हे पति का पूर्ण प्रेम प्राप्त होता तो उनमें पति की रक्षिता के प्रति सौतिया डाह न होता। उनके पति-प्रेम में आराध्य भाव भी रहता। ऐसे सम्बन्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण यह होता कि यदि हमारे प्रति हमारे आराध्य का अनुराग अक्षुण्ण है तो उनकी मौज में हमें भी सुख है। यही अनुकूल परिस्थिति प्रसादजी के अन्तःपुर मे थी। उनकी प्रेमिका के लिए उनकी जनानी ड्योढी का द्वार सदैव उन्मुक्त रहा। प्रसादजी जब हवा खाने गाड़ी पर निकलते, तब कभी-कभी मर्दानी पोशाक मे उसे भी संग लिए रहते । एक दिन मेरे यहाँ फाटक तक आकर न जाने क्यों सकुच गए, उल्टे पांव लौट गए-कई दिन बाद खुले । प्रसादजी का जीवन एक खुली किताब थी। इस जीवन मे वह ढाई-तीन बरस रमे रहे। उभय पक्ष से कभी कोई बेवफाई नही हुई–प्रसादजी स्वयमेव निवृत्त-तर्ष हो गए, एक दिन । जब उपरत हुए तब सदा के लिए उपरत हुए, कभी पीछे मुड़कर न देखा, न ही मन में कोई वासना या पछतावा रहा-उनके जीवन की यही विशेषता थी। 'जीवन-समुद्र पिर हो गया तो सदा के लिए हो गया। वह अपने सारे आभूषण उन्हें सौंपने लगी, उन्होंने बिना किसी रुखाई के दृढ़तापूर्वक ना कर दी। झंझटों से वह दूर रहा करते । इसके बाद एक दिन मैंने उनसे पूछा कि कुछ उसका पता-ठिकाना है उन्होंने बिल्कुल कहा-'सुना कि मर गई ।' किन्तु कई बरस बीत जाने पर वह अकस्मात प्रगट हुई । 'अरे तुम?' प्रसादजी ने उसे देखकर निस्संग भाव से साश्चर्य तटस्थ भाव १७४: प्रसाद वाङ्मय