तारेन की गिनती सम नाहिं, सुजेते तरे. प्रभु पापी बिचारे । चारे चले न विरंचिहू के, जो दयालु ह्व सकर ने निहारे ।। जब प्रसादजी ने यह कविता अपने गुरु के सामने संशोधन के लिए रखी तब उन्होने उनकी पीठ ठोक दी। उस समय उनकी वय ७ से ९ वर्ष से अधिक न रही होगी। कुछ दिशाओ से यह शंक उठाई गई है कि क्या इतना अल्पवयस्क ऐसी कविता कर सकता है ? हमारा कथन है कि कर सकता है। यदि भारतेन्दुजी का ७ वर्ष की वय में रचा गया यह दोहा-- ल व्यौंडा ठाढे भये श्री अनिरुद्ध सुजान, वाणासुर की सैन्य को हनन लगे भगवान । -उनके पिता महाकवि गिरधरदास अपने दशावतार कथामृत मे सम्मिलित कर सकते है तो यह संशय निस्सार है कि प्रसादजी उस अल्पावस्था मे ऐसी रचना नही कर सकते थे। इस रचना से तथा 'भारतेन्दु' में प्रकाशित रचना से यह अनुमान भी होता है कि तब तक प्रसादजी अपनी दुकान पर जो गुप्त रूप से रचनाएं करते थे उनमे 'कलाधर' उपनाम रहा होगा। क्योकि १९०९ ई० से प्रकाशित 'इन्दु' मे उनकी जो भी रचनाएं निकली है 'प्रसाद' उपनाम से । वेद हे कि उनकी कलाधर' उपनामवाली शेष कविताएं सर्वथा अप्राप्त है।' १. कलाधर उपनामवाले कुछ छन्द मुझे पुरानी वहियो मे 'संघनी साहु' के इश्तहार के पीछे लिखे मिले जो प्रथम खण्ड (प्रसाद वाड्मय) मे दे दिए गए है। प्रसाद उपनामवाली रचनाएं इन्दु के दूसरे वर्ष (कला-२) से मिलती है उसकी किरण (सं० १९६७) मे 'प्रार्थना' 'सन्ध्यातारा' शीर्षक व विताएँ और 'पचायत' शीर्षक आख्यायिका तक प्रमाद उपनाम नहीं मिलता-मिलता है केवल जयशकर । उसी के बाद 'चम्पू' शीर्षक लेख मे है जयशकर (प्रसाद)। अगले लेख 'कवि और कविता' मे भी यही नामरूप मिलता है ठीक उसी के बाद 'वर्षा मे नदी कूल' शीर्षक कविता से "प्रसाद" नामाक स्थिर हुआ। इसके हेतु की चर्चा कानन कुसुम की 'अवतरणिका' मे कर चुका हूँ। अतः इन्दु की दूसरी कला किंवा संवत् १९६७ के श्रावण शु० द्वितीया से अग्रसर अंक की पहली किरण मे 'प्रसाद' उपनाम 'वर्षा मे नदी कूल' से प्रचलित पाया जा रहा है । 'भारतेन्दु' मे प्रकाशित 'सावन पंचक' को देख अग्रज साहु शम्भुरत ने गब कहा कि 'या तो कविता करके भारतेन्दु का हश्र भोगो या व्यवसाय करो'-इसी के सैद मे कलाधर ने १९०६ तक की प्रायः चार सौ रचनाएँ किमाम के भढे मे झोक दी- 'कलाधर' का दाह स्वय कलाधर ने ही कर दिया-फिर जयशंकर से १६४: प्रसाद वाङ्मय
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