पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४६२

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. था। अवस्था ढलने पर या अनेक बार दुर्घटना का सामना होने के कारण, वे बहुत मन्दगति से चलना पसन्द करने लगे थे। बाद मे मोटर की सवारी उन्हें रुचती थी। जब किसी आकर्षक मोटर को देखते तो कम्पनी का नाम और उसका दाम बड़े कोतूहल से पूछते थे। मोटर पर कम्पनी का नाम देखकर उसके सम्बन्ध मे मैं अन्य बाते बतलाता। प्रति वर्ष नया मॉडल निकलता था। छोटी आस्टिन प्रसादजी को अधिक प्रिय थी। वे एक छोटी मोटर लेना चाहते थे। उसमे खर्च भी कम पड़ता था और खिलोने की भांति दिखाई पडती थी। किन्तु दुर्भाग्य से उसे खरीदने के लिए आर्थिक प्रश्न बाधा डाल देता था। रेडियो के प्रति भी उनका बहुत आकर्षण था। एक रेडियो सेट खरीदने की उनकी बड़ी इच्छा थी। बीमारी के अन्तिम दिनो मे उन्होने एक रेडियो खरीदा था। पलंग पर वे पड़े थे और सामने दालान मे रेडियो लगा था। मुझसे उन्होंने पूछा-रेडियो कैसा? मैंने कहा-ठीक है । बहुत अच्छा किया। इससे आपका मनोरंजन होगा और सूनापन भी नही मालूम होगा। रेडियो के आविष्कार पर उन्हे आश्चर्य और कौतूहल दोनो था। बीमारी की अवस्था मे भी वे यंत्र को चलाने (सुई घुमाने) में विशेष प्रसन्नता अनुभव करते थे। प्रसादजी की रुचि अग्रेजी फैशन अथवा नई रगत की तनिक भी नही थी। वे प्राचीन संस्कृति के समर्थक थे और खुद भी अपनी पुरानी चाल पर चलते थे। उन्हे पैन्ट और कोट पहने हुए मैंने कभी नही देखा । गर्मी मे कुरता पहनते और कड़े शीत मे चेस्टर पहना करते थे। उन्हे कुरता ही अधिक पसन्द था और गर्मी जाड़े मे बराबर उसे पहनते थे। हलके जाडे मे चादर कधे पर रख लेते। उन्हे तूश बहुत ज्यादा पसन्द था। घर पर आधे बांह की बन्डी ही पहने रहते थे। कमीज पहनते हुए भी मैंने उन्हे कभी नही देखा। खद्दर के वे प्रेमी थे। हाथ के बने वस्त्र ही उनकी रुचि के अनुकूल थे । ढाके का मलमल और मुर्शिदाबादी सिल्क उन्हे अत्यन्त प्रिय था । रुई की बन्डी और चेस्टर पर सकरपारे की सीवन उनकी अपनी विशेषता थी। सबसे अधिक उन्हे अँधनी रग ही भाता था। मैंने एक दिन मजाक मे उनमे पूछा -मॅधनी साव होने के कारण ही क्या आप सुंधनी रग पसन्द करते है ? मुस्कराते हुए उन्होने कहा-तुम यह नही समझने कि गन्दा होने पर भी यह रंग अपना असली रूप नही खोता। इस पर दूसरा, रंग चढ भी नही सकता। प्रसाद के स्वभाव मे सादगी और उनकी पोशाक में पुरानी संस्कृति झलकती थी। हिन्दी-संसार मे प्रसाद की ख्याति बढ रही थी। पत्र-पत्रिकाओं से प्राय उनकी १५८: प्रसाद वाङ्मय