पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४६०

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तितली उपन्यास पर मेरा पूरा अधिकार था। मेरी इच्छानुसार ही वह लिखा गया था। मैंने प्रसादजी से कहा था कि इस नवीन उपन्यास' की भाषा सरल हो और ग्रामीण चित्रण हो। उन्होंने उसी क्रम से उसे लिखा भी। उस पर मेरी ममता थी। मनोमालिन्य और आवेश में मैंने हजारों रुपयों की अपनी हानि की। ___ दो महीने भी नही हुए थे, तितली प्रकाशित हो गई। मेरे कहने पर वह पूरी नहीं हुई, और फर्मे भेजते ही इतनी शीघ्रता से प्रकाशित हो गई-इस विचार से मेरा रोष और भी तीव्र हो उठा। फिर जले पर नमक छिड़का गया था-पुस्तक पर लिखा था-'विनोद के लिए' प्रसाद मेरे स्वभाव से परिचित थे, उन्होंने समझा था कि इस प्रयोग के कारण मेरे भाव बदल जाएँगे। ___ उनके संसर्ग में रहनेवालों के सामने उनके प्रति कुछ खरी और सत्य बातों का मैंने प्रयोग किया। मुझे विश्वास था कि वे बाते उनके कानों तक पहुँच जाएंगी। उसे सुनकर उन्होंने कहा-वह जो चाहे कहे किन्तु मै उनके प्रति कुछ नही कह सकता ! मैंने समझा कि वे कह ही क्या सकते है ! दो-एक बार सडक पर वे जाते दिखाई पडे । दृष्टि बचाकर अलग हो गया। मेरा-उनका सामना नही हो सका। इस तरह १५ महीने कट गये। जहाँ एक दिन का नागा अखरता था, वहाँ इतना लम्बा समय कट गया। वाचस्पति आते और प्रसाद के सम्बन्ध मे ऐसी बाते करते, जिससे मलिनता दूर हो जाय । उन दिनों उनका स्वास्थ्य भी खराब हो गया था। बहुत दिनों से बीमार थे। मैंने समझा कि इस क्षणभंगुर जीवन के अस्तित्व को जानते हुए भी इतना द्वन्द्व ठीक नही । जो हानि होनी थी, वह तो हो चुकी। फिर मेरे भाग्य मे जो है, वही होगा ! उसमें प्रसाद या अन्य कोई क्या कर सकता है ? उस दिन वाचस्पति के साथ मैं प्रसाद के यहां गया। मुझे देखते ही वे आश्चर्य से चकित हो गये । उनकी आंखे भरी थी, मेरा कंठ रुंधा था। कुछ बोलने का साहस नही होता था। हम सब चुप थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रही। देखने में कोई परिवर्तन नही था। चलते समय प्रसाद ने कहा -तुम जो चाहो समझो, किन्तु मेरे हृदय मे कोई अन्तर नही है ! पैसों का प्रश्न ही आपस मे अनबन का मूल कारण होता है । वोर आर्थिक कष्ट के दिनों में भी प्रसाद से किसी तरह एक पैसा कार्न अथवा सहायता के रूप में मैंने कभी नही लिया था; केवल इसीलिए कि कही हमारी मित्रता में कटुता न उत्पन्न हो। पुस्तक प्रकाशन के सम्बन्ध में उनकी योजना थी कि पुस्तक मंदिर, सरस्वती प्रेस, भारती-भण्डार आदि संस्थाओं को मिलाकर लिमिटेड कम्पनी का रूप दे दिया १५६ : प्रसाद वाङ्मय