पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५३

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हलवाइया शीरी लकब, फरहाद की थी उसको तलब, चाश्नी करती थी गजब, मुस्कात है मुख मोड़ के। अन्तिम लाइन पर कोई अपनी हंसी न रोक सका, सब लोग खिलखिला पड़े। प्रसादजी भी उठ बैठे। उन्हे देखकर मुशीजी और चक्कर मे पड़े, क्योंकि वे जानते थे कि प्रसादजी हलवाई जाति में उत्पन्न हुए थे। ____सब लोग मुंशीजी को बना रहे है- यह मुशीजी भली भांति समझकर चुप हो गये। x "आओ चाणक्य !"-कहकर जब राय कृष्णदासजी प्रसादजी का स्वागत करते, उस समय उपरिथत मित्र मंडली खिलखिला पड़ती। इसमें सन्देह नही कि प्रसाद की समस्त रचनाओ मे चाणक्य का चरित्र-चित्रण यदि सर्वश्रेष्म न माना जाय, तो भी वह प्रथम श्रेणी का अवश्य ममझा जायगा ! चाणक्य के चरित्र-चित्रण में प्रसाद पूर्ण मफल हुए है। लेखक की सहानुभूति अथवा अध्ययन जिस चरित्र पर विशेष रूप से होता है, उसी का चित्रण करने मे वह मफल होता है। चाणक्य के साथ प्रसादजी की लेखनी का चमत्कार स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसलिए यह निश्चित है कि उसके साथ उनका ऐतिहासिक मनन और सहानुभूति अवश्य है ! प्रसाद के जीवन मे इतने आघात-प्रतिघात हुए कि बचपन से ही जीवन की जटिल समस्याओं की उधेड़-बुन मे उनका समय व्यतीत हुआ था। अनुभव ने उन्हे बतलाया कि बल से अधिक मनुष्य नीति द्वारा तफल हो सकता है ! __ प्रसाद की नीति देखकर मैं दंग रह जाता था। वे अपने विरोधी और निन्दा करनेवालों से भी कटु व्यवहार नही करते थे। कृष्णानन्द गुप्त ने 'चन्द्रगुप्त' और स्कन्दगुप्त' की समीक्षा लिखी थी। वह 'सुधा' मे छपी, इसके बाद पुस्तकाकार मे प्रकाशित हुई। कृष्णानन्दजी श्री मैथिलीशरण गुप्त की छत्रछाया में विकसित हुए थे। मैथिलीशरणजी और प्रसादजी मे भीतरी प्रतिद्वन्द्विता चलती रही। कृष्णानन्द ने प्रसाद के नाटको को असत्य और पाखंड से भरा हुआ प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने लिखा-वह (प्रसाद) उस प्रशंसा के तनिक भी योग्य नहीं, जो किसी प्रकार से उसे प्राप्त होगई! वही कृष्णानन्द प्रसाद से भेंट करने आते हैं। प्रसाद के व्यवहार और बातचीत से कही भी ऐसी झलक नहीं दिखाई पड़ती कि वे उनसे रुष्ट है। संस्मरण पर्व : १४९