पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४२

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मुकदमा तय होने के दो वर्ष पश्चात् शम्भुरत्नजी का देहान्त हो गया। अब व्यवसाय, कर्ज और गृहस्थी का सम्पूर्ण भार प्रसाद पर आ गया। उनका विवाह बड़े भाई ने ही निश्चित कर दिया था। उनके बाद अपना विवाह उन्हे स्वयं ही करना पडा! उनकी प्रथम पत्नी दस-बारह वर्ष तक जीवित रही, किन्तु उससे कोई सन्तान उत्पन्न न हुई। बचपन से ही कविता की ओर प्रसाद की रुचि थी। वे आरम्भ मे ब्रजभाषा मे कविता करते थे। दूकान पर बैठे हुए, बहीखाते से एक चिट्ट निकालकर उसी पर कविता करने लगते । विद्वानो के सत्संग का भी उनके जीवन पर प्रभाव पड़ा। उन दिनो बनारम मे, धनी परिवारो मे मनोरंजन और संगीत के लिए प्रायः गौनहारिने जाया करती थी। उनका घरेलू संगीत बिला किसी काम-काज के भी प्रायः चलता रहता। महीने मे दो-एक फेरा प्रत्येक बडे घरो मे उनका लगता था। प्रसादजी के भाई के समय से यह क्रम चलता रहा । प्रसादजी के यहाँ रजवन्ती नाम की विख्यात गोनहारिन आती थी। उसके साथ श्यामा नाम की एक कथकिन भी थी। वह दुबली-पतली, संवलिया रंग की थी। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें थी और लम्बा कद था। ____ मैंने उसे अपने यहां दादी के सामने गाते हुए अनेक बार देखा था। दादी उससे बड़ी प्रसन्न रहती। प्रसाद बड़े हंसमुख और दिल्लगी-पसन्द थे-मजाक मे ही यह सम्बन्ध बढ़ता गया। श्यामा हारमोनियम बजाकर गाती थी, उसकी आवाज जोरों से लडती थी। उसमे कोई सौन्दर्य तो न था, किन्तु हाव-भाव-प्रदर्शन करने मे कुशल थी। प्रसादजी के पड़ोस मे मेरे एक सम्बन्धी रहते थे, उनसे भी उसका सम्बन्ध था। प्रसादजी के मकान के सामने एक दूसरा मकान है, इसके सामने मैदान है; वही संध्या समय कुर्सियां लग जाती। सब लोग बैठते, भांग-ठंढाई की व्यवस्था होती थी। मंडली सदेव जमी रहती थी। प्रसाद ने स्वयं मुझे बतलाया था कि उसी मकान मे भगवती नाम की वेश्या प्रायः आती थी। उसके सम्बन्ध मे एक दिन दिल खोलकर सब वृत्तान्त उन्होंने मुझसे कहा था। प्रसादजी के शब्दों मे, वह उन पर रीझ उठी थी। एक दिन दस-पन्द्रह हजार के आभूषण लेकर वह आई । सामने बक्स रखकर उसने कहा--"यह सब मेरी १. तीन वर्ष बाद, १९०४ मे फैसला हुआ १९०७ मे साहु शम्भुरत्न का देहान्त हुआ। (सं०) २. आठ वर्षों तक जीवित रही, १९१६ के २२ अगस्त को यक्ष्मा से निधन हुआ। (सं०) १३८: प्रसाद वाङ्मय