पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१२

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किया था-एक बार ऐसा इत्तिफाक हुआ कि मैं रात को दो-तीन बजे उनके घर पहुंच गया, और बाहर गली से देखा कि उनके ऊपर वाले बड़े कमरे में रोशनी जल रही थी। मैंने आवाज दी-'बाबू साहब !' उन्होंने ऊपर से कहा.-'चले आओ।' मैं जब ऊपर उनके कमरे में गया, तो देखता हूँ, कि वे बड़े-बड़े तकियों में फंसे हुए, कुछ आधे लेटे से हैं। उनके सामने अंग्रेजी के कई मोटे-मोटे ग्रन्थ खुले पड़े थे । कुछ अन्य पुस्तकें एक ओर विखरी थी। मेरे पूछने पर उन्होंने कहा-"देखो जी, चन्द्रगुप्त के बारे में इन ग्रीक इतिहासकारों के क्या विचार है ?......." मैं अभी तक बैठा नही था। केवल खड़े-खड़े कुछ हर्ष और आश्चर्य से उन्हें देखता रहा पर यह कहे बिना मुझसे नहीं रहा गया-"आप इतनी रात तक पढ़ रहे हैं-अभी, सोये नही ?" वे हम कर रह गये, पर रात के जागरण मे वे कुछ थके हुए से लगतं थे। नेत्र जैसे गहरे नशे में डूबे हुए थे, और गोरा सुन्दर मुख मण्डल जैसे गम्भीर चिन्तन से सहसा जागा था। वे कुछ प्रसन्न भाव से भारतीय और ग्रीक इतिहासकारों की तुलनात्मक आलोचना करते रहे। प्रसादजी की प्रकृति और मनोवृत्ति कुछ ऐसी कारुणिक-कोमल थी कि वे थोड़ी भी दुर्भावना या कटुता सहन नही कर सकते थे। कुछ 'रिजर्व' स्वभाव के अनूठे व्यक्ति थे, और अज्ञात या अपरिचित मनुष्यों से जल्दी बेतकल्लुफ नही होते थे। उनकी प्रकृति में कुछ ऐसा कोमल संकोच भाव था-वह चाहे उनका गुण हो या दोष पर वे कभी आगे बढ़करं, या अपने को प्रदर्शन मे लाकर काम करना पसन्द नहीं करते थे। सार्वजनिक स्थानों या सम्मेलनों मे जाते पर दूर रहते भीड़ के नही बनते थे । रोमा रोला (फ्रेन्च दार्शनिक) या कवीन्द्र रवीन्द्र की तरह वे गरमी और गर्द से दूर भागते, और किसी भी स्वाभिमानी नरेश की तरह समस्त विवादों से परे रहते थे। समालोचकों को उत्तर न देते और विरोधियों से तर्क न करते । उनके पक्ष और विपक्ष में कितनी ही बार लेख लिखे गए, पर उन्होंने सदा उपेक्षाभाव रखा। अनेक बार सार्वजनिक संस्थाओं और महासम्मेलनों में उनसे सभापति होने के लिए प्रार्थना की गई, पर उन्होंने सदा ही सधन्यवाद उनसे अपना पीछा छड़ाया। एक समय था, जब प्रसाद जी भी बड़ी विलासिता और शौकीनी के साथ रहा करते, घर में गाड़ी घोड़े थे, कीमती से कीमती विलायती वस्त्र पहनते । घर के शिव मन्दिर में नाच-गाने भी होते, मित्रों की दावतें होतीं, पर उस समय भी उन्होंने १०८:प्रसाद वाङ्मय