पुजारी लोगों से कही अच्छा स्वस्थ स्पष्ट तथा धार्मिक जीवन उनका था तथा जुबान से एक बार वोट देने का वादा करने के बाद वे कभी अपने वचन से नही हटी। प्रसाजी से ही मैंने सुना था कि सम्पूर्णानन्द जी के प्रथम चुनाव में उनके प्रपल विरोधी उम्मीदवार एक प्रसिद्ध वेश्या के कृपा पात्र थे। उन्हें विश्वास था कि चुनाव में सनी वेश्याये एक झुण्ड मे उना माय देगी। पर ९० प्रतिशत ने काग्रेस को वोट देने का वादा पिया था और वादा नही तोटा । नस्तु प्रमादजी की वहा भय बैठक साहित्यकारो की नित्य शाम की गोष्ठी होनी थी जिसमे हम मत्र आपस में नहस करते, तडते, मॅहफट विनोदशकर व्यास तथा सबकी आलोचना गाली गलोज भे ते गाले वेचन शर्मा 'उम्र" की फूहड भाषा मुच्छन शातिप्रिय द्विवेदी । ननार्दन प्रसाद झा 'द्विज' की "धोती तक नही उतार ली" बाकी सर दुर्गनि कर नाती जाती थी। प्रसादजी मूक दृष्टा के रूप मे केवल मुस्कराते रहते थे। 'लडको को खेल लेते देते थे।" कुछ तोग, जो साहित्यकार नही थे, वे भी मुफ्त में पान खाने के लिये यहाँ साहित्यकार बन जाते थे। मै स्पष्ट लिग + वि जब मेरी प्रसाद जी से प्रथम बार भेट हुई थी उनका नाम सुना था, रचना एक भी नही पढ़ी थी। और मेरे जीवन मे केवल दो ही व्यक्ति ऐसे मिले जो कभी अपनी रनना T न तो जिक्र करते थे और न उन पर प्रशसा या विचार सुनने को प्रोत्साहन देते थे। वे थे प्रसादजी तथा डा. गम्पूर्णानन्द जी। आश्चर्य यह है कि हम जो कुछ रिखते थे वह कब और कैसे वह पढते थे, यह नही मालूम पर लेखक को प्रोत्साहित करते थ । जब मेरा पहला उपन्याम "मेरी जाह" निकला तो उन्ह किसने नह प्रति दी, नही मालम । शाम को जब "वैठक" मे मैं पहुंचा तो बोले- "लिरयो तो बहुत अच्छा पर कथानक हो और बढाना चाहिये था । जब मेरी हास्यरम की पुस्तर "निठल की राम कहानी" निाली, प्रसादजी ने इतना ही कहा- "काहे हास्यग्म में कद गये । अरे, पिनी लाइन पकडो।" सचमुच मैंने समझ लिया कि यह मेरा प्रयाम अनुचित था। मैंने फिर उधर कदम नही रखा। X x X किमी के व्यक्तिगत जीवन मे सम्बन्ध न रखने -था जिज्ञासा न रखने की मेरी पुरानी आदत है । टामीजी विनोदशकर व्यास की प्रियतमा है, यह मुझे वर्षों तक नही मालूम हुआ। उग्र उस जमाने मे ५० पैसे की भग अकेले रोज छान लेता था, यह ८०: प्रसाद वाङ्मय
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