कतिपय मनोरम जीवन-स्मृतियाँ संलग्न रही हैं ! प्रायः प्रसादजी अपनी लिखने की कॉपी लेकर यहां आ जाते थे और यही बैठकर जब तक इच्छा होती, लिखा करते थे। उनकी अधिकाश काव्य-रचनाएँ या तो इस फुलवारी में हुई है, या रात्रि के समय मकान की दूसरी मजिल पर । कामायनी का मुख्य भाग नये घर और नयी बैठक मे, रात्रि के पिछले प्रहगें म लिखा गया था। अस्तु, यह तो प्रसादजी को घर की चौहद्दी में देखने की चेष्टा की गई। उनके परिवारिक और सामाजिक जीवन की भी थोड़ी-सी चर्चा अप्रासंगिक न होगी। प्रसाद का परिवार बहुत बडा न था। पत्नी, भाभी और एक ही पुत्र रत्नशंकर । यह मै उनके प्रौढ़काल की चर्चा कर रहा हूं। उनकी बाल्यावस्था मे उनका परिवार काफी भरा-पूरा था; किन्तु क्रमग वह घटता और श्रीण होता चला गया। कदाचित् इमीलिए प्रसादजी को शेष कुटुम्तियों के प्रति घनिष्ट स्नेह हो गया था। भाभी के प्रति अपन मादरी कशी-+ भी चर्चा करते। पुत्र के लिए उनके मन में एक हल्का आवेग भग किन्तु ऊपर सौम्य और संयत स्नह था। पत्नी के प्रति उनकी भावना का पता उनके पुत्र के 'माँ' स्वर से ही लगाया जा सकता था; क्योंकि वे उनके सम्बन्ध मे, नारतीय शालीनता के अनुगार भी कुछ कहते न थे। प्रसाद का पारिवारिक जीवन सामान्य रूप से सुखी था, यह कहा जा सकता है । परिवार और मित्र-मंडली के बाहर, एक भार्वजनिक या सामाजिक व्यक्ति के रूप में प्रसादजी कम ही आते थे। उन्हें अपने माहित्यिक और गार्हस्थिक कार्य से अवकाश ही नही मिलता था। प्राय: सन्ध्या-समय वे बनारस के चौक के समीप गलीवाली अपनी 'मुंघनीसाहु' की दुकान पर बैटते थे, जहाँ जाने-अनजाने सभी प्रकार के लोग उनसे मिलने आते है। मित्रो से प्रमाजी जितने खुले रहते थे, अपरिचितों से उतने ही शालीन और मितभाषी थे। कुछ थोड़े से चने हुए वाक्यों में वे उनके प्रश्नों का उत्तर दे देते। यदि कही किसी वाद-विवाद की सभावना देखते, तो मौन ही रह जाते। परन्तु यदि 'मनो का जमावड़ा रहता, तो दिल खोलकर बाते करते, फब्तियां कसते और कभी किसी का रहस्योद्घाटन भी करते । परन्तु इन समस्त चर्चाओं में प्रसादजी के खुले दिल की प्रसन्न भावना ही काम करती; वैमनस्य अथवा ईर्ष्या-द्वेष के लिए उनके व्यक्तित्व मे स्थान न था। सभा-सोसाइटियों अथवा भाषण-व्याख्यानों में प्रसाद जी को बहुत कम रुचि थी; परन्तु विस्मय अथवा कौतुहलपूर्ण वार्ता, देश-विदेश के अनुभव और यात्रा-वर्णनों से वे विशेष आकृष्ट रहते थे। कभी कोई ऐमा व्याख्य ना आ गया तो प्रसादजी उसे सुनने अवश्य जाते। मुझे स्मरण है कि एक बार तिब्बत-यात्रा सम्बन्धी राहुलजी का भाषण सुनने के लिए वे दूर तक पैदल चलकर गए थे, और मुझे भी उसे सुनने का - संस्मरण पर्व : ६९
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।