पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७१

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युग पुरुष 'प्रसाद' -नन्ददुलारे वाजपेयी जयशंकर 'प्रसाद' हिन्दी के युग-निर्माता कवि और साहित्यकार हो गये है । उनका निधन १५ नवम्बर सन् १९३७ ई० को हुआ था; परन्तु इन बीम वर्षों मे उनकी कीर्ति लेशमात्र मलिन नही हुई है। इस बीच उनके सम्बन्ध मे अनेकानेक निबन्ध और पुस्तकें प्रकाशित हुई है। उनके साहित्य के विविध अगो पर तथ्यपूर्ण अनुशीलन हुए है। कतिपय विश्वविद्यालयों ने उन पर तथा छायावादी साहित्य-युग पर-जिसके वे एक प्रधान प्रतिनिधि थे-माहित्यिक शोध कार्य भी किया है, जिससे उनकी रचनाओं और उनके व्यक्तित्व का महत्व प्रकाश में आया है। यह ठीक है कि अभी हम प्रसादजी के जीवन और व्यक्तित्व के इतने समीप है कि अपने देश की साहित्यिक परम्परा और इतिहास मे उनकी वास्तविक देन का निरूपण और निश्चय करना हमारे लिए कठिन कार्य है, परन्तु प्रसादजी के जीवन और कृतित्व के सम्बन्ध मे जितनी भी प्रामाणिक सामग्री एकत्र की जा सके, की जानी चाहिए । समय बीत जाने पर उनकी प्रत्यक्ष जानकारी सम्बन्धी संस्मरण नही मिल सकेगे; सम्पूर्ण व्यक्तित्व और वातावरण का ही आँखों-देखा उल्लेख किया जा सकेगा, जिसके भीतर से प्रसाद की प्रतिमा प्रस्फुटित और विकसित हुई थी। श्री जयशंकर 'प्रसाद' एक आसाधारण व्यक्तित्व-सम्पन्न पुरुष थे। वे अधिक ऊँचे न थे, किन्तु उनका शरीर पुष्ट और मुमंगटित था। गोरे मुख पर मुस्कान प्रायः सदेव खेला करती थी। मित्र-मण्डली मे उनके समक्ष अनावश्यक गंभीरता, विषण्णता या दिखावट तो रह नही सकती थी। प्रसादजी मित्रों का स्वागत बड़ी आकर्षक और आत्मीय नेत्रगति से करते थे, अक्सर मित्रों के कन्धे पकड़कर हल्के ढंग से झकझोर देते थे, जिससे यदि कही खिन्नता या उपालम्भ का भूत सवार हो तो तुरन्त उतर जाय । रहा-सहा अवसाद उनके ठहाकों से दूर हो जाता था। प्रसादजी के ठहाकों में उबरता और घनिष्ट मैत्री के भाव व्यंजित होते थे। यह कहना सत्य है कि प्रसादजी की गोष्ठी में कृत्रिमता के लिए कोई स्थान नही था; यह भी सच है कि उनकी गोष्ठी से लोग प्रसन्न और हंसते हुए ही निकलते थे। प्रसादजी के पतले ओठों में सरल आत्मीय मुस्कान खूब फबती थी। पान का संस्मरण पर्व : ६७