पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७

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को 'कहरूर-युद्ध' में पराजित कर स्कंदगुप्त ने आर्यावर्त की रक्षा की थी। अच्छी, जब ५२८ ई० में मिहिरकुल पर विजय निश्चित-सी है तब 'कहरूर-युद्ध' के ऊपर विक्रमादित्य को यशोधर्म माननेवाला सिद्धान्त निर्मूल हो जाता है, क्योंकि ५३२ के विजय-स्तंभ तथा शिलालेख में मालवगण-स्थित का उल्लेख है-विक्रम संवत का नहीं, और ५३२ के पहले ही यशोधर्म हूण-विजय करके सम्राट आदि पदवी धारण कर चुका था; फिर ५४४ ईसवीय के किसी काल्पनिक युद्ध की आवश्यकता नहीं है। 'राजतरंगिणी' और 'सुंगयुन' के वर्णन मिलाने पर प्रतीत होता है कि हूणों का प्रधान केन्द्र गांधार था। वहीं से हूण राजकुमार अपनी विजयिनी सेना लेकर भिन्नभिन्न प्रदेशों में राज्य-स्थापन करने गये । राजतरंगिणी का क्रम देखने से तीन राजाओं का नाम आता है -मेघवाहन, तंजीन और तोरमाण । गांधार के मेघवाहन के समय में काश्मीर उसके शासन में हो गया था। उसके पुत्र तुंजीन ने काश्मीर की सूबेदारी की थी। यही तुंजीन प्रवरसेन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने झेलम पर पुल बनवाया। 'सेतुबन्ध' नामक प्राकृत-काव्य इसी के नाम से अंकित है। गांधार-वंशीय हूण तुंजीन का समय और स्कन्दगुप्त का समय एक है, क्योंकि उसके पुत्र तोरमाण का काल ५०० ई० स्मिथ ने सिद्ध किया है। सम्भवतः म्कन्दगुप्त के द्वारा हूणों के कश्मीर राज्य मे निकाले जाने पर मातृगुप्त वहां का शासक था। यह उज्जयिनी-नाथ कुमारगुप्त-महेन्द्रादित्य का पुत्र स्कन्दगुप्त-विक्रमादित्य ही था जिसने सौराष्ट्र आदि से शकों का और कश्मीर तथा सीमा-प्रान्त से हगों का राज्य-विध्वंस किया और सनातन आर्य-धर्म की रक्षा की-म्लेच्छों से आक्रांत भारत का उद्धार किया। "भितरी' के स्तम्भ में अंकित 'जगतिभजबलाढ्यो गुप्तवंशकवीरः। प्रथित विपुलधामा नामतः स्कन्दगुप्तः विनयबलसुनीतैविक्रमेण क्रमेण" से स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त-विक्रमादित्य ही द्वितीय 'कहरूर-युद्ध का विजेता'तृतीय-विक्रम' है। (अवलोक्य पृष्ठ ४६ के अंत में दी गई टिप्पणी)। पिछले काल के स्वर्ण के सिक्कों को देखकर लोग अनुमान करते हैं कि उसी के समय में हूणों ने फिर आक्रमण किया और स्कन्दगुप्त पराजित हुए । वास्तव मे ऐसी बात नहीं। तोरमाण के शिलालेखों के संवत् को देखने से यह विदित होता है कि स्कन्दगुप्त पहले ही निधन को प्राप्त हुए और दुर्बल पुरगुप्त के हाथों में पड़कर तोरमाण के द्वारा गुप्त साम्राज्य का विध्वंस किया गया और गोपाद्रि तक उसके हाथ में चले गये। कालिदास विक्रम के साथ कालिदास का कुछ ऐसा सम्बन्ध है कि एक का समय-निर्धारण करने में दूसरे की चर्चा आवश्यक-सी हो जाती है। यह प्रतिपादित किया जा चुका स्कंदगुप्त विक्रमादित्य-परिचय : ३७