पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६१

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महाकवि जयशंकर प्रसाद -आचार्य शिवपूजन सहाय राष्ट्रभाषा हिन्दी के आधुनिक महाकविया मे काशी के श्री जयशंकर 'प्रसाद' का विशिष्ट स्थान है। कवि के अतिरिक्त वे नाटककार, कथाकार, निबन्धकार और उपन्यासकार भी बडी उच्चकोटि के थे। साहित्य की इन शाखाओ को पल्लवान्वित और पुष्प फल-सम्पन्न करके इन्हे अपने कल कूजन से भी जीवन्त किया। गद्य और पद्य दोनो में उनकी भाषा प्राय सस्कृतनिष्ठ है। उनकी सभी रचनाओ में भारतीय संस्कृति की सत्ता-महत्ता झलकती है। वे ऐसे क्ला कुशल शब्दशिल्पी थे कि उनके गद्य मे काव्य दी दटा दीख पड़ती है। भारतीय सभ्यता के प्रति उनकी सहज स्वाभाविक ममता थी। उनकी कितनी ही रचनाएँ भारतीय विश्वविद्यालयो की पाठ्यपुस्तको के रूप मे नई पीढी के लिए अध्ययन-अनुशीलन का माध्यम बनी हुई है। जैसे कविताओ मे उनकी सुकुमार भावनाएं और कमनीय कल्पनाएँ उनकी गम्भीर चिन्तनशीलता तथा काव्य-रसधारा मे उनकी तल्लीनता का परिचय देती है वैसे ही उनकी गद्यशैली मे ठौर-ठोर हृदयग्राहिणी मूक्तियाँ भी मिलती है। उनकी प्रतिभा के प्रसाद से हिन्दी बहुत अधिक गौरवान्वित हुई। किन्तु जिस व्यक्ति ने साहित्य को ऐसा महिमा-मण्डित किया वही अपने जीवन-काल मे हिन्दी के हिमायती कहे जाने वालो से लाछित और विताडित भी हुआ। इस निर्मम जगत् की पही परम्परागत रीति है। 1 'प्रसादजी' महान साहित्यकार के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ थे। उनकी स्मृतिशक्ति विलक्षण थी। उनमे स्वजातीय गुण भी पर्याप्त मात्रा मे था। वे अनेक कलाओ के मर्मज्ञ शे: काशी की विशेषताओ के भी विशेषज्ञ थे। विभिन्न व्यवसायों की पारिभाषिक शब्दावली का भण्डार उनके पास भरपूर था। वैदिक वाङ्मय और प्राचीन इतिहास मे उनकी गहरी पैठ थी। संस्कृत साहित्य के प्रमुख अंगों का अध्ययन-मनन करने में तो ये निरन्तर तत्पर रहते ही थे, कई भारतीय शास्त्रों में भी उनकी बड़ी गहन गति थी। अपने पैतृक व्यापार मे वे पूरे दक्ष थे। विद्याव्यसनी ऐसे थे कि जब सारा संसार निद्रा-निमग्न हो जाता था तब उनको स्वाध्याय मे तन्मय होने का अवकाश मिलता था। संस्मरण पर्व : ५७