प्रति रखी थी, जिसे उठाकर उन्होंने मेरी और बढ़ा दी और एकाएक रूप में नितांत गम्भीर होकर चुप रह गए । कुछ विलम्ब के उपरान्त उन्होंने पुनः आंखें खोली और सदैव की भांति मुस्कुराने की चेष्टा भी की पर मैं शान्त-चित्त उनके मुख पर दृष्टि जमाए देखता रहा। कुछ बोलने की शक्ति भीतर संचित करने में लगा रहा। कुछ-एक क्षणों के उपरान्त जब मैंने आंखे खोली तो उनकी ओर देखकर चिन्तित-सा हो गया क्योंकि उनकी मुख-मुद्रा देखकर मुझे अन्दाज लगा कि उनकी आंखों में जल-कण झलकते मिले। इस पर मैंने तुरन्त उनसे नितान्त ममता भरे शब्दों मे पूछा कि 'महाकवि की आंखों मे जल-कण की झलक कैसी ? इस पर सचेत होकर उन्होंने कहा - "मैं इस समय, चला-चली की बेला मे कुछ उद्विग्न अवश्य हो गया। सोचने लगा था कि मैंने अपने जीवन-लक्ष्य को समाप्त कर दिया पर इसका भविष्य में क्या और कैसा स्वागत-मत्कार या निन्दा-स्तुति होगी इन बातों का गौर अब आप ऐसे कर्मठ और मर्मज्ञ लोग ही कर सकेगे । इत्यलम् ।" इस 'इत्यलम्' के उपरान्त मैं अपना भारी चित्त लिए तुरन्त उनके कक्ष से बहिर्गत हो गया। परन्तु इस अन्तिम दर्शन और उसकी प्रभाव-सीमा से बहुत दिन छुट्टी न मिल सकी । आज भी उसी दिन का स्मरण कई रूपो मे हो रहा है। ५६ : प्रसाद वाङ्मय
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