पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४९

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. (वह) पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह। X. X X समय अधिक हो गया था, साढ़े चार बजनेवाले थे; उधर मोटरवाला स्टेशन पर लौटने के लिए जल्दी मचा रहा था। प्रसादजी से विदा ली और लौटते समय इस बात का मन-ही-मन अनुभव किया कि यदि प्रसादजी से मिलना न होता तो एक बहुत ही बड़ा सुअवसर खो देता ! आज उन घड़ियों को स्मरण कर रायसाहब को धन्यवाद दिये बिना नही रहा जाता। उस दिन रायसाहब ने प्रेमचन्दजी के लिए भी पूछताछ की थी; परन्तु ज्ञात हुआ कि वे अपने गांव चले गये थे। उस दिन प्रेमचन्दजी से न मिल सका और बाद में दूसरा अवसर ही नहीं आया। अगर उस दिन प्रसादजी से न मिलता, तो फिर उनसे भी मिलने का अवसर नहीं मिलता। प्रेमचन्दजी से न मिलने का खेद रह गया है और तब प्रसादजी के दर्शन न कर सकने का अफसोस भी रह जाता। प्रसादजी से जिनका निजी परिचय था, वे ही जानते हैं जिप्रशारजी से एक बार मिलते ही किम प्रकार अनजाने ही उसके प्रति प्रेम, आदर और श्रद्धा उत्पन्न हो जाती थी। x X x 'कामायनी' छपकर प्रकाशित हो गई और उसको प्रति पाकर उस महान् रचना के लिए महाकवि को बधाई भी दी; परन्तु तब कौन जानता था कि वह ग्रंथ ही प्रसादजी की सर्वश्रेष्ठ ही नही, अन्तिम कृति भी होगी। उस ममय प्रसादजी बीमार होकर बिस्तर पर पड़ चुके थे। प्रसादजी की अस्वस्थता की खबरें अखबारों में छपने लगीं और उनके मित्रों, प्रेमियों और प्रशंसकों ने प्रसादजी से बार-बार आग्रह किया कि वे अपना समुचित इलाज करावे और हवा बदलने के लिए बनारस छोड़कर किसी दूसरे स्थान को चले जायं। परन्तु, नही ! प्रसादजी को बनारस छोड़ना मंजूर न था। उन्होंने किसी को न सुनी और न मौत ने ही किसी की प्रार्थना पर ध्यान दिया। बीच में कुछ-कुछ आशा भी होने लगी थी कि वे अच्छे हो जायंगे; परन्तु 'आँसू का वह गायक अनुभव कर रहा था कि- चेतना - बहर उठेगी जीवन-समुद्र थिर होगा। संध्या हो स्वर्ग-प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगा। संस्मरण पर्व : ४५