पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. तो वह दृढ़तर होता जा रहा है कि प्रसादजी का यह महाकाव्य इस युग की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। हिन्दी के लिए यह एक सौभाग्य की बात थी कि प्रसादजी अपनी इस महान् कृति को सम्पूर्ण कर गए। इन, पिछले वर्षों में कई व्यक्तियों ने खड़ी बोली में अनेकानेक महाकाव्यों की रचना की है। परन्तु उनमें से कितने महाकाव्य स्थायी साहित्य में स्थान पा सकेंगे,. यह समय ही बता सकेगा। परन्तु इस बारे में कभी दो मत नहीं हो सकते कि 'कामायनी' को अमर साहित्य में स्थान मिलेगा। वह हिन्दी-साहित्य की ही नहीं, विश्व-साहित्य की भी एक अमूल्य निधि है। 'कामायनी' के बारे में बातें होती रहीं और प्रसादजी उसकी हस्तलिखित प्रति हाथ में दबाये बैठे रहे। रायसाहब के आग्रह को वे टाल गए; परन्तु जब मैंने विशेष आग्रह किया, तब उन्होंने सकुचाते हुए उस हस्तलिखित प्रति को खोला और कुछ शब्दों में उसके कथानक को समझाने के बाद वे उस महाकाव्य के प्रारम्भिक अंश को पढ़ने लगे। प्रसादजी पढ़ते जाते थे और हम सब शान्त सुन रहे थे। मैं बैठा- बैठा प्रसादजी को ताक रहा था; उनको निकट से देखने का, उनके व्यक्तित्व को ठीक तरह जानने और उसका पूर्ण परिचय पाने का अवसर मिला था। कवि के ही मुख से उसी के द्वारा रचे गए महाकाव्य को सुनने का अवसर कितनों को प्राप्त होगा ! 'कामायनी' को लुनते-सुनते मुझे अंगरेजी भाषा के महाकवि मिल्टन एवं उसके अमर काव्य 'पैराडाइज लॉस्ट' का ख़याल आया। प्रलय-प्रवाह में से निकलती हुई पृथ्वी एवं पुनः उसके बसने की कथा भारतीय साहित्य का वह अमर तपस्वी गा रहा था, और मैं बैठा सोच रहा था कि मनु का वर्णन करते समय प्रसादजी स्वयं का कितना अच्छा वर्णन लिख गए हैं- तरुण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान; नीचे प्रलय-सिंधु लहरों का, होता था सकरुण अवसान । पवित्र भगवती गंगा के किनारे वाराणसी में बैठा वह अपस्था से प्रौढ़ किन्तु कल्पना और भावनाओं में सर्वथा युवा तपस्वी, देवी सरस्वती का वह वरद पुत्र, धूनी रमाये अपने अमर गान गा रहा था। उस किनारे पर साहित्यिकों तथा तपस्वियों के उस श्मशान में बैठा वह अमर गायक देखता था कि वासनाओं का तुमुल अंधड़ उठ-उठकर फैल रहा था; भौतिकता का वह प्रलयंकर प्रवाह भीषण वेग के साथ उमड़ रहा था और भावुकता की वे सुकुमार-सुन्दर तरंगें जड़ जगत् के तट पर टकरा-टकराकर छिन्न-भिन्न हो रही थीं, और वह तपस्वी- ४ : प्रसाद वाङ्मय