मैंने जबाब दिया--'नहीं' और साथ ही पूछा भी कि 'क्या वे यहीं हैं ?' 'प्रसादजी बनारसं छोड़कर कहीं नहीं जाते । क्यों न अभी चले चलें ?' सो उस भरी दोपहरी में 'भारत-कला-भवन' से हम सब निकले; कुछ दूर तक मोटर में गये और गली के कोने पर मोटर को छोड़कर प्रसादजी के मकान की ओर पैदल ही बढ़े। दरवाजा खटखटाया। जब रायसाहब ने मेरा परिचय कराया, तब तो उन्होंने अपने नये मकान को खुलवाने के लिए नौकर दौड़ाया और हमारा आतिथ्य करने के लिए भी वे प्रयत्नशील हुए। तीसरा पहर हो रहा था; ताजे अनार का शरबत बनवाया गया और बनारसी पान की गिलोरियां भी आई। वहीं उस नये मकान में बैठकर कोई दो घण्टे तक बातचीत होती रही। प्रसादजी से मेरी वही प्रथम और अंतिम भेंट थी। उस समय तो कभी यह खयाल भी नहीं हो सकता था कि वह भेंट ही मेरी अंतिम भेट होगी। प्रसादजी को मेरे 'आकाशदीप' वाले लेख का स्मरण हो आया और उसका उन्होंने उल्लेख भी किया। उसी सिलसिले में मैंने इस बात का प्रयत्न किया कि प्रसादजी से उनके स्वयं के बारे में कुछ बातचीत हो, परन्तु प्रसादजी उसे टाल गए और विशेषतया मेरे ही बारे में पूछते रहे । रायसाहब ने तब बताया कि किस प्रकार प्रसादजी को मेरे 'ताज', 'एक स्वप्न की स्मृतियाँ' आदि लेख पसन्द आये थे और प्रसादजी ने ही प्रथम बार रायसाहब का ध्यान उन लेखों की ओर आकर्षित किया था । इधर-उधर की बातचीत होती रही और तब रायसाहब ने इस बात का विशेष आग्रह किया कि प्रसादजी अपने महाकाव्य 'कामायनी' के कुछ अंश मुझे भी सुनावें। 'कामायनी' के कई अंश यत्र-तत्र प्रकाशित हो चुके थे; उनकी बहुत कुछ प्रशंसा भी हुई थी। जहां तक मुझे याद है, उस समय तक 'कामायनी' के नौ सर्ग लिखे जा चुके थे। रायसाहब प्रसादजी से आग्रह कर रहे थे कि वे इस महाकाव्य को समाप्त कर दें और प्रसादजी का विचार था कि जितना भी अंश तैयार हो गया था, उसे ही पहले भाग के रूप में तत्काल छपवा दें। मेरी निजी राय यह थी कि सारा महाकाव्य एक साथ ही छपे, और यही बात मैंने प्रसादजी से भी कही, तो वे अपनी अस्वस्थता एवं अन्य घरेलू झंझटों का जिक्र करने लगे। इस प्रकार 'कामायनी' के बारे में बातचीत होती रही। उस समय भी मेरा निश्चित मत पहो था और अब १. अप्रैल १९३५ के पूर्वार्द्ध में कामायनी की पूरी प्रेस कापी मुद्रणार्थ प्रयाग जा चुकी थी। इड़ा सर्ग तक पाण्डुलिपि की एक जिल्द सामने रही। उसी को देखकर यह भ्रम हुआ कि नौ सर्ग ही लिखे गए हैं-शेष छः सर्ग दूसरी जिल्द और दूसरे आकार के कागजों पर है । (सं०) संस्मरण पर्व:४३
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