पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४५

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और हिन्दी की ओर मेरा झुकाव भी बढने लगा था; परन्तु सन् १९३० के अन्तिम महीनों में ही मैंने पहली बार 'प्रसादजी की कृतियों का पूरा-पूरा परिचय प्राप्त किया। आधुनिक हिन्दी-साहित्य से परिचय प्राप्त करने एवं हिन्दी-गल्प-साहित्य का पूरा-पूरा अध्यपन करने का मैंने निश्चय किया था। तभी मैंने तब तक प्रकाशित प्रसादजी की सब कृतियों को मंगवाया और उन्हें ध्यानपूर्वक पढा । तब जाकर प्रसादजी के महत्त्व का कुछ-कुछ ज्ञान हुआ। प्रसादजी की कहानियों का पूरा-पूरा अध्ययन किया और उसी जोश से मैंने प्रसादजी की कहानियो के सद्य:-प्रकाशित गल्प-संग्रह 'आकाशदीप' की एक विस्तृत आलोचना भी लिख डाली। उन्हीं दिनों पं० बनारसीदास जी चतुर्वेदी ने 'आकाशदीप' की आलोचना करते समय 'विशाल- भारत' में कई ऐसी बातें लिख डाली थीं, जो मुझे तो पूर्णतया ऊटपटांग ही जान पड़ीं और यह भी खयाल हुआ कि चतुर्वेदीजी ने प्रसादजी के प्रति अन्याय किया था। तब प्रसादज की कला एवं उनकी कहानियों ठीक-ठीक महत्त्व को बताने एवं कूनने का मैंने प्रयत्न किया था। वह आलोचना 'सुधा' में प्रकागित हुई थी। उस प्रारम्भिक जोश में लगे-हाथ उम समालोचना की एक प्रति प्रसादजी के पास भेज देने में भी कोई हिचकिचाहट नही हुई। परन्तु, जैसा कि प्रसादजी का नियम था, वे अपने गम्भीर मौन को बनाये ही रहे और श्रीयुत विनोदशंकरजी व्यास द्वारा ही यदा-कदा प्रसादजी की कुछ खबर पाकर मुझे सतोष कर लेना पड़ा। प्रसादजी अपने इस अज्ञात, अपरिचित ममर्थक की ओर भी मौन रहे-यह बात दिल को अखरी। परन्तु बाद में प्रसादजी का मेरे प्रति रुख बदल गया और कुछ ही वर्षों बाद, शायद मन् १९३४ ई० से ही, उन्होंने यह नियम बना लिया था कि ज्यों ही उनकी कोई नई पुस्तक छपकर तैयार होती, एक प्रति पर अपने हस्ताक्षर कर उसे मेरे पास स्वयं ही भिजवा देते थे। उन्होंने इसमे कभी भूल नहीं की, अपने प्रकाशकों तक को उन्होंने इस बात की हिदायत कर दी थो; एवं कई बार दो-दो प्रतियां आ जाती थी। प्रसादजी की वे सप्रेम भेटे मेरी एक अमूल्य निधि हैं। बीमार पड़े थे, स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता जा रहा था और वही बीमारी उनकी अंतिम बीमारी हुई-तथापि प्रसादजी ने यथानियम अपने अंतिम एवं सर्वश्रेष्ठ काव्य 'कामायनी' की एक प्रति पर अपने हस्ताक्षर कर भेज ही दी। प्रसादजी की इस कृपा को, उनके इस स्नेह को, मैंने आशीर्वाद के रूप में ही स्वीकार किया था। प्रसादजी अपनी कृतियाँ मेरे पास बराबर भिजवाते रहे; परन्तु वे पत्र कम लिखते थे। इधर पिछले एक-दो वर्षों में ही उनक कुछ पत्र आये थे। वे व्यर्थ के पत्र-व्यवहार से पूर्णतया बचते रहते थे। जो पत्र उनके आते थे, वे बहुत ही संक्षिप्त और नपे-तुले शब्दों के होते थे। प्रसादजी ने इन ऊपरी बातों को कभी महत्त्व नहीं संस्मरण पर्व : ४१