पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४२

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'घनीभूत पीड़ा' -महाराज कुमार डा० रघुवीर सिंह "जरा किवाड खोलकर देख तो सही कि आज इस बेवक्त कौन दरवाजा खट- खटा रहा है ?"-प्रमादजी ने आश्चर्य-भरी आवाज मे नौकर से कहा । सन् १९३५ ई० का साल था। १९ मई को दोपहर के समय अपने पुराने मकान मे लकड़ी के तख्त पर एक तैमत बांधे, एक पतला-सा कपडा शरीर पर डाले प्रसादजी नीद को बुलाने का प्रयत्न कर रहे थे । लू चल रही थी एव किवाड बंद थे, फिर भी गर्मी के मारे उन्हे नीद नही आ रही थी, पसीना टपक रहा था, जी घबरा रहा था, आँखे बन्द कर-कर खोल रहे थे और बनारस की गर्मी को कोस रहे थे। उसी समय कोई ढाई बजे जब किसी ने उनके उस पुराने मकान का दरवाजा खटखटाया, तब तो प्रसादजी चौक पडे और नौकर को आवाज दी । "इस समय भरी दोपहरी मे कौन आया होगा ?" किवाड खोलते हुए नौकर कहने लगा-"ल लगकर आज तो दो-तीन पुलिस के सिपाही भी तो मर गए है।" उस भरी दोपहरी मे, बनारस की तमतमाती हुई ल मे राय- कृष्णदासजी, डॉक्टर मोतीचन्द चौधरी के साथ एक अपरिचित नवयुवक को अपने दरवाजे पर खडा देखकर प्रसादजी अचकच। गए -“इस वक्त......." प्रसादजी पूछ न सके । रायसाहब ने आगे बढकर प्रसादजी से मेरा परिचय कराया। X X अपने उस कौतूहलपूर्ण कौमार्य मे, जब हाथ लगने पर प्रत्येक पुस्तक को पढ डालने की उतावली होती थी और जब कहानियो, उपन्यास और नाटको के लिए विशेष आकर्षण होता था और आज भी यह आकर्षण किसी भी प्रकार घटा नही है-जब उनके कथानक एवं घटना-वैचित्र्य की ओर ही दृष्टि रहती थी-उन ग्रंथो के लेखको से कोई काम नहीं रहता था, तब अनजाने ही मैंने प्रसादजी के 'अजात- शत्रु' नाटक को पढकर रख दिया था। आज मुझे इस बात का स्मरण नहीं कि वह नाटक उस समय कैसा भाया था, बाद मे उसकी कोई भी स्मृति बाकी नही रही केवल यही याद रहा था कि 'अजातशत्रु' नामक कोई नाटक पढा अवश्य था। उन्ही दिनो 'विशाख' भी छपा था, उसकी प्रति भी हाथ लगी थी, परन्तु वह शुष्क प्रतीत हुआ, और जव उससे मनोरजन नही हुआ तो उसे अधूरा ही छोड़ दिया। प्रसाद- X ३८: प्रसाद वाङ्मय