वैसा ही पढ़ते भी थे। बहुत समय तक हम लोग रस में मग्न होते रहे। परन्तु अन्त में भौतिकता हमारी मानसिकता को आक्रान्त करने लगी। वाह-वाह करते हुए भी हम बापस में भेद भरी आँखों से देखने लगे। सहसा प्रसादजी बोल उठे-रत्नाकर जी हमें तो आपका वह कवित अच्छा लगता है : चुप रहो ऊधो सूधो पथ मथुरा को गहो बस, अन्त में, उसे और सुना दीजिए। सब लोग हंस पड़े। रत्नाकरजी भी मुसकरा गये । फिर भी उन्होंने वह छन्द सुना दिया। मार्ग में हम लोगों ने प्रसादजी की पीठ ठोकी। एक दिन हम लोग अजमेरी का गाना सुन रहे थे। उन्होंने एक दादरे की पहली पंक्ति सुनायी : पी लई राजा, तुम्हार संग भंगिया। मधुर कण्ठ से गाते हुए उन्होंने कहा, इसका अन्तरा नहीं सुना। कुछ समय उपरान्त प्रसादजी ने कहा, मुंशीजी, यह अन्तरा कैसा होगा : न जाने कब सारी सरक गई और दरक गई अंगिया।' सुनकर अजमेरी प्रसन्न हो गये । वाह-वाह करके प्रसादजी की उन्होंने सराहना की। एक बार बातचीत में कालिदास की चर्चा आ गयी। कालिदास गुप्त काल में हुए अथवा ईसा के पूर्व, इस विवाद का समाधान करते हुए उन्होंने कहा-दो कालिदास मान लेने से यह विवाद मिट सकता है। मैं यही समझता हूँ, काव्यकार कालिदास चौथी-पाँचवी शती में हुए और नाटककार कालिदास ईसा के पूर्व। मैंने कहा-जब तक पक्का प्रमाण न हो तब तक ऐसा कहना कालिदास के महत्त्व को घटाना है । मैं नहीं जानता, प्रसादजी का वास्तव में यही मत था अथवा मुझे चिढ़ाने के लिए विनोद में उन्होंने ऐसा कहा था। उनका 'आंसू' काव्य पहले मेरे ही यहाँ प्रकाशित हुआ था। उसके किसी प्रयोग पर मैंने कहा-यह प्राचीन के विरुद्ध है। क्षणभर रुक कर वे बोले, हां, परन्तु मुझे यह ठीक लनता है। उनके कहने में आत्मविश्वास की झलक थी। मेरी एक दुर्बलता है। यदि कविता अनुप्रासरहित हो तो कोई बात नहीं। परन्तु सानुप्रास रचना में अनुप्रास का उचित निर्वाह न होना मुझे खटकता है। जैसे 'कामायनी' के आरम्भ में ही : - १. वस्तुतः- ना जानू कैसे सरकि गई सारी ना जानू कैसे दरकि गई अंगिया-(सं०) ३२: प्रसाद वाङ्मय
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