पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३०

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छोडते चले गए। तारो भरा अन्धकार तार-तार हो गया और प्रबोध का चन्द्र किरण-लहरियो मे लहराने लगा। अब प्रसाद जी ने कामायनी की पाण्डुलिपि के पृष्ठ उलटे-पलटे और सौम्य स्निग्ध स्वर मे एक सर्ग सुना डाला । कान और आँख की एकाग्रता सोम की जुन्हाई मे अन्हाई-सी मस्त हो गई। मुझे आकाशवाणी की मामान्य एव सर्व-भाषा कवि सभाओ मे कितनी ही बार कई-कई महाकवियो को एक साथ सुनने-सुनाने के सुअवसर प्राप्त हुए है, किन्तु तब तक पुस्तक-रूप मे अप्रकाशित उक्त दो महान काव्य-कृतियो को स्वय उनके महान् कला-स्रष्टाओ के मुख से एक साथ मुनकर जो अनुभूति हुई थी वह फिर कभी न हुई, न हुई। ( ३ ) फागुन आवत देखकर बन रूना मन मॉटि ऊंची डाली पात है दिन-दिन पीने थाहि । कामायनी पूरे अर्थ में प्रकाशित हो चुकी थी। प्रसाद जी ने अपनी प्रतिभा का चरम ऐश्वर्य आधुनिक हिन्दी कविता को अर्पित कर दिया था किन्तु यह अमर सर्वस्व-दान उनके भौतिक जीवन को बहुत मंहगा पडा । मन मे कैलास वसाकर तन कितने दिन धूल की मलिनता सहता मैं जन्मजात अकिंचन उसी किशोगवस्था मे रोजी-रोटी ढूढने के लिए विवश हो गया था। रायगढ राजकवि बनकर चला गया था। एक दिन निराला जी का पत्र मिला। लखनऊ की प्रदर्शिनी से लौटने के बाद प्रसाद जी अच्छे नही रह रहे है । तब मैं यह नही सोच सका था कि दक्ष के शाप से चन्द्रमा की एक-एक कला क्षीण होने खगी है। और जायमी की दूरदर्शिता तक तो मेरी मद दृष्टि फैल ही नही सकती थी हो रे पखेरू पखी जेहि वन मोर निबाहु खेलि चला तेहि वन कहँ, तुम आपन घर जाहु नियन्ता की कठोर कृपा से उन अन्तिम दर्शन भी होने थे। मैं शास्त्राचार्य के शेष वर्ष और इण्टरमीडिएट की परीक्षाएँ देने रायगढ़ से हिन्दू विश्वविद्यालय लोट आया था। बन्धुवर कुंवर चन्द्रप्रकाश सिंह के साथ प्रसाद जी को देखने की ठहरी । हम गए । रत्नशङ्कर जी चिकित्सको की मम्मति का सकेत दे ही रहे थे कि प्रसाद जी ने देख लिया और अपने पास बुलाकर पहले की भांति साहित्यिक चर्चा छेड दी। सोना पीतल हो चुका था। गुलाब की अपत कटीली डार हो बच रही थी। वह खाट से लग गए थे। किन्तु कोई विश्वास करे न करे, आँखे तब भी चमकीली पी और चेहरे पर पहले-जैसी ही दृढता थी। २६ : प्रसाद वाङ्मय