मे वह एक कवि एक साहित्यकार अपने आप उत्पन्न कर लेती है। और वह पूरे युग को वाणी दे देता है। पूरा युग उसके माध्यम से अपनी व्यथा कहता है और व्यथा का समाधान भी खोजता है, और पा लेता है । वह व्यापक भी होता है क्योकि वह एक देश विशेष का नही होता। इस प्रकार अगर देखे कि प्रसाद हिन्दी के कवि है तो मुझे लगता है कि हम उन्हे भी छोटा करते है और अपने आप भी छोटे हो जाते है। वे विश्वकवि की पक्ति मे ही बैठेगे-और आज नही नो पचास वर्ष बाद । हम उनके निकट है, इसलिए सभवत उनको ठीक मे मूरयाकन नही कर पाते, या हम स्तुति करते है या हम टिया निकालते है। हमारे अपने-अपने सस्मरण हे अपनी-अपनी मान्यता है, अपनी-अपनी धारणा है । लेकिन जब आनेवाले युग उन्हे कोई देखेगा और तटस्थ भाव से दखेगा तन वह पायेगा कि इस मे, पदि किसी कवि ने अनन्त-अनन्त युगो की बात कही है और सम्पूर्ण अनुभूति के माथ कही है केवल बुद्धि की क्रिया से नही, केवल चिन्तन मे नही, क्योरि चिन्नन ऊत्रा हो सकता है परन्तु मनुष्य उममे जीता नही । चिन्तन हमारा हममे भिन्न हो सकता है, अनुभूति हमारी हमसे मिन्न नही हो सकती। पाप ने पार नेगेमि अगारा छू लेने से हाथ जल जाता है, आप चिन्नन भी कर सकते है और देपर मोच भी सकते है कि अगारा जलानेवाली वस्तु है परन्तु जब आपकी गली उस पड जाए और जब जल जाए तो फिर जलने की ननभनि हम पूरन हो जाती है। न जहा तक दार्शनिक का प्रश्न है उसमे विन्तन और तर्क अधिक होता है। अभूति का प्रश्न जन-जीवन के साथ उतना गहर रूप में नहीं जुडा रहता जितना कवि का काव्य। हमारे पुस्तकालय जो है वह, उनम स्थापित रह सकते है। परन्। अनि हमारे स्पन्दन के साथ जिएगा, अन्यथा नही जिएगा। उस साय वह जीता है, वह आपका साथी है, हर माय माथी है। आपकी हर अनुभूति में वह आपरे गाय है अन्यया वह नही है। तो मैं नही समझती ह नि प्रमाद ऐसे कवि है कि जो आपके केवल चिन्तन मे है या आपको केवल उपदेश देते है या केवल एक दर्शन की पद्धति बताते हैं। वे आपके निरन्तर साथी है, हर सुख दुःख के साथी है, आपके स्वप्न के साथी है, आपके स्पन्दन के साथी है। अब हम जो उन उत्तराधिकारी है, हमे करना कशा चाहिए ? दूसरे देशो म तो अपने ऐगे महावियो के लिए कैसे स्मारक होते है आप जानते है रि उन्होने क्तिो प्रयत्न से उन स्थानो को वैसा ही रक्खा है जैसे वे उनके जीवनकाल में थे। जिन वस्तुओ का वे उपयोग करते थे, जहा वे रहते थे, उसे उसी तरह सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है और उसका कारण है- पार्थिव शरीर तो एक दिन नष्ट होता ही है। कितने ही वर्ष, मान लिया १०० वर्ष चलता तो भी वह शरीर नष्ट होता लेकिन वह हमारे समान था, हमारी ही मिट्टी १४: प्रसाद वाङ्मय
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