चाहते थे। तब दूसरा विकल्प यही हो सकता था कि वे पतवार फेंककर तरी समुद्र में इस प्रकार छोड़ दें कि वह दिशाहीन बहती हुई जीवन-मरण के किसी भी तट पर लग सके। उन्होंने इसी को स्वीकार किया, और अपने अदम्य साहस और आस्था से मृत्यु की उत्तरोत्तर निकट आनेवाली पगचाप सुनकर भी विचलित नहीं हुए। पर जीवन और मृत्यु के संघर्ष का यह रोमांचक पृष्ठ हमारे मन में एक जिज्ञासा की पुनरावृत्ति करता रहता है--क्या इतने बड़े कलाकार का कोई ऐसा अन्तरंग मित्र नहीं था, जो इस असम द्वन्द्व के बीच में खड़ा हो सकता था ! सम्भवतः घर मे ऐसा कोई बड़ा व्यक्ति नही था, जिसका निर्णय निर्विवाद मान्य होता ! सम्भवतः किशोर पुत्र के लिए पिता के पर विजय पाना कठिन था ! पर क्या ऐसे आत्मीय बन्धु का भी उन्हे अभाव था, जो उनके दुराग्रह को अपने सत्याग्रही विरोध से परास्त कर क्षय के चिकित्सा-केन्द्रों तथा विशेषज्ञों का सहयोग सुलभ कर देता ! कार्य से कारण की ओर चले तो विश्वास करना होगा कि नहीं था। सम्पन्न, मधुरभाषी और हंसमुख व्यक्ति के साथ आनन्दगोष्ठी मे बैठकर हंस लेना सबके लिए सहल हो सकता है, परन्तु किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त मित्र की निष्प्रभ आँखों में मृत्यु के सन्देश के अक्षर पढ़कर उसे बचाने के लिए कोई बाजी लगाना कठिन हो जाता है ! प्रसाद जैसे मनस्वी और संकोची व्यक्ति के लिए किसी से स्नेह और सहानुभूति को याचना भी सम्भव नही थी। 'चन्द्रगुप्त' में सिंहरण के निम्न शब्दों में बहुत कुछ प्रसाद के मन की बात भी हो तो आश्चर्य नही 'अपने मे बार-बार सहायता करने के लिए कहने मे मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्द और विश्वाम का सुन्दर अभिमान है। उम समय मन चाहे अभिनय करता हो संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अंध होकर लड़ता है। कहता है-अपने को बचाऊंगा नही, जो मेरे मित्र हो, आवे और अपना प्रमाण दें। सम्भव है, कवि प्रसाद का जीवन भी अपना सग्राम अंध होकर लड़ा हो और उसने अपने आपको बचाने का कोई प्रयन्न न किया हो ! उन्हें किसी की प्रतीक्षा रही या नहीं, इसे आज कौन बता सकता है ! व्यावहारिक जीवन मे एक का हित दूसरे के हित का विरोधी भी हो मकता है। ऐसे व्यक्तियों की प्रसाद सम्बन्धी स्मृति, उनकी अपनी चोटो की स्मृति-अधिक हो सकती है, प्रसाद की विशेषताओं की कम। भारतेन्दु के उपरान्त प्रसाद की प्रतिभा ने साहित्य के अनेक क्षेत्रों को एक साथ ८:प्रसाद वाङ्मय
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