पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३११

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फारसी, अंग्रेजी आदि का ज्ञान प्राप्त करते रहे। पर इसी किशोरावस्था में उन्हें पारिवारिक कलह की कटुता का अनुभव हुआ। इतना ही नहीं, उसके किशोर कंधों पर ही पारिवारिक उत्तरदायित्व, अर्थव्यवस्था और ऋण का भार आ पड़ा। ऐसा लगता है, यही दुर्वह भार सारे दुलार, स्वास्थ्य और विद्या का स्वाभाविक प्राप्य था ! तरुणाई में ही वे माता-पिता, बड़े भाई, दो पत्नियो और एकलौते पुत्र की वियोग-व्यथा झेल चुके थे। यह बचपन मे तारुण्य के अन्त तक फैली हुई बिछोह की परम्परा उनके भावुक मन पर कोई दुखनेवाली चोट नही छोड़ गई थी, ऐसा कथन मनुष्य के स्वभाव के प्रति अन्याय होगा, और यदि वह मनुष्य एक महान साहित्यकार हो तो इस अन्याय की मात्रा और अधिक हो जाती है बहुत मम्भव है कि सब प्रकार के अन्तरंग-बहिरग संघर्षों में मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के प्रयास में ही उन्हें उम 'आनन्दवादी' दर्शन की उपलब्धि हो गई हो, जिसके भीतर करुणा की अन्तः सलिला प्रवाहित है ! चांदनी से धुले ज्वालामुखी के समान ही, उनके भीतर की चिन्ता उनके अस्तित्व को भार करती रही हो तो आश्चर्य नहीं। उनकी अन्तर्मुखी वृत्तियां या 'रिजर्व' भी इसी ओर संकेत करता है। पारिवारिक विरोध और 'प्रतिष्ठा की भावना' के वातावरण में पलनेवाले प्रायः गोपनशील हो ही जाते है। उसके साथ यदि कोई गम्भीर उत्तरदायित्व हो तो यह मंकोच उनके मनोभावों और वाह्य वातावरण के बीच में एक आग्नेय रेखा खीच देता है। कण-कण कटती हुई शिला के समान उनकी जीवनी शक्ति रिसती गई और जब उन्होंने जीवन के सब संघर्षों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बे जीवन की बाजी हार गए, जिसमे हार जाने की संभावना भी उनके मन में नही उठी थी। क्षय कोई आकस्मिक रोग नही है, वह तो दीर्घ स्वास्थ्यहीनता की चरम परिणति ही कहा जा सकता है ! अस्वस्थ रहते हुए भी वे एक ओर अपनी लौकिक स्थिति ठीक करने में संलग्न थे और दूसरी ओर 'कामायनी' में अपने सम्पूर्ण जीवन दर्शन को भावात्मक अवतार दे रहे थे। सम्भवतः रोग के निदान ने उनके सामने दो विकल्प उपस्थित किये। ऐसी चिकित्सा प्रचुर व्यय-साध्य होती है। और कभी-कभी रोग का अन्त रोगी के साथ होने पर भी परिवार को आत्मीय जन की वियोग-व्यथा के साथ विपन्नता का भार भी वहन करना पड़ता है। उनके सामने अकेला किशार पुत्र था और अपने किशोर जीवन के संघर्षों की स्मृति थी। यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि वे अपने किशोर पुत्र के भविष्य पर किसी दुर्वह भार की काली छाया डालकर अपने इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं करना संस्मरण पर्व : ७