श्रद्धा के साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निर्जन प्रदेश में उजडी हुई सृष्टि को फिर से आरम्भ करने का प्रयत्न हुआ। किंतु असुर पुरोहित के मिल जाने से इन्होंने पशु-बलि की 'किलाताकुली- इति हासुर ब्रह्मावासतुः । तो होचतु श्रद्धादेवो वै मनुः-आवं नु वेदावेति । तो हागत्योचतु:-मनो बाजयाव त्वेति ।' इस यज्ञ के बाद मनु मे जो पूर्व परिचित देव-प्रवृत्ति जाग उठी उसने इड़ा के संपर्क में आने पर उन्हें श्रद्धा के अतिरिक्त एक दूसरी ओर प्रेरित किया। इड़ा के सम्बन्ध में शतपथ में कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ मे हुई और उस पूर्ण योषिता को देखकर मनु ने पूछा कि 'तुम कौन हो ?' इड़ा ने कहा, 'तुम्हारी दुहिता हूँ।' मनु ने पूछा कि 'मेरी दुहिता कैसे ?' उमने कहा, 'तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है ।' 'ता ह मनुरुवाच- 'का असि ?' इति । 'तव दुहिता' इति । 'कथं भगवती ? मम दुहिता' ? इति । (शतपथ ६ प्रपाठक ३ ब्राह्मण)। इड़ा के लिए मनु को अत्यधिक आकर्षण हुआ और श्रद्धा से वे कुछ खिचे । ऋग्वेद में इड़ा का कई जगह उल्लेख मिलता है । यह प्रजापति मनु की पथ-प्रदर्शिका मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है। "इडामकृण्वन्मनुषस्य शासनीम्" (१-३१-११ ऋग्वेद)। इड़ा के सम्बन्ध में ऋग्वेद में कई मंत्र मिलते है। सरस्वती साधयन्ती धियं न इड़ा देवी भारती विश्वतूतिः तिम्रो देवीः स्वधयावहिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ।" (ऋग्वेद २-३-८) "आनो यज्ञं भारती तूय मेविड़ा मनुष्वदिह चेतयन्ती । तिस्रो देवीबहिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ।" (ऋग्वेद १०-११.. ८) इन मन्त्रों में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम आया है । लौकिक संस्कृत मे इडा शब्द पृथ्वी अर्थात् बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है-"गो भू वाचस्त्विड़ा इला"-(अमर)। इस २दा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवाद का शतपथ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्व के लिए झगड़ते है “अथानो मनसश्च" इत्यादि (४ अध्याय ५ ब्राह्मण)। ऋग्वेद में इड़ा को धी, बुद्धि का साधन करने वाली, मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। पिछले काल में संभवतः इड़ा को पृथ्वी आदि से सम्बद्ध कर दिया गया हो, किंतु ऋग्वेद ५-५-८ में इड़ा और मरस्वती के साथ मही का अलग उल्लेख स्पष्ट है। "इडा सरस्वती मही तिस्रो देवी मयोभुवः" से मालूम पड़ता है कि मही से इड़ा भिन्न है । इड़ा को मेधसावाहिनी नाड़ी भी कहा गया है । अनुमान किया जा सकता है कि बुद्धि का विकास, राज्य-स्थापना इत्यादि इड़ा के प्रभाव से ही मनु ने किया। फिर तो इड़ा पर भी अधिकार करने की चेष्टा के कारण मनु को देवगण का कोपभाजन होना पड़ा। "तद्वै देवानां आग आस" (७-४ पातपथ)। इस अपराध के कारण उन्हें दण्ड भोगना पडा 'तं रुद्रोऽभ्यावत्य विव्याध' आदि पुरुष : १६३
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