पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२४३

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1 कुशिकों के कारण ही इंद्र सुदाम पर प्रसन्न हुए। इंद्र की सहायता से ही सुदास को उस दाशराज्ञ युद्ध में विजय मिली। और उन इन्द्र को तुष्ट करने वाले विश्वामित्र ही थे-स्वयं उन्होंने कहा है कि “य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टवम् विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मदं भारतं जनम्" (३-५३-१२) कुछ लोगों का अनुमान है कि दाशराज्ञ युद्ध ३१०२ बी० सी० में हुआ और उसी युद्ध का स्मरण-स्वरूप महाभारत-युद्ध है क्योंकि यह भी पौरवों के ही गृह-कलह का रूपांतर है। किंतु दाशराज्ञ युद्ध को अलग मानने के बहुत से कारण है। बह 'भारत-युद्ध' नहीं है । यह वैदिक युद्ध, इंद्र और वृत्रासुर अथवा देवासुर-संग्राम का ही पिछला अंश है, जिसे ७५०० बी० सी० से कम का अनुमान नही किया जा सकता। पूना एक शोधक विद्वान् भी इसे ६००० बी० सी० से पीछे का नही मानते । इस युद्ध के बाद आर्य लोगो के बहुत से दल-अपने मतभेद लिये -आर्यावर्त से बाहर चले गये-और, उन्होंने नये उपनिवेश बसाये । आर्यों की वाणिज्य करने वाली जाति के पणि लोग उस संघर्ष में असुरों से मिल गये थे। यही लोग संभवतः प्राग-ऐतिहासिक काल के आर्यों के नथ "फिनीशियन" लोगो के पूर्वज थे। ऋग्वेद (मण्डल १० के उपनिवेश-वृहत्तर १०८वें सूक्त.) मे उनका उल्लेख है। इसी संघर्ष के कारण आर्यावर्त आज भी जरत्त्वाट्र के अनुयायी धर्म में दीक्षिन होते हुए प्रतिज्ञा करते है - "हम देवों को भगाते है और अपने को जरथुस्त्रीय देवविरोधी स्वीकार करते है" ।' उधर ऋग्वेद में इंद्र-शत्रुओ के निर्वासन की चर्चा है -"उतब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इदुवः" (ऋक् १-४-५) इस प्रकार प्राचीन काल के पूज्यमान असुर पिछले काल में वेदों में विरोधी माने गये। और देव लोग ईरानी आर्यों के यहाँ शत्रु समझे गये। आजकल ईरानी संस्कृति में देव-जादा या काला-देव, सफेद-देव उमी ध्वनि का द्योतक है, एवं अवेस्ता १. महां ऋषिदेवजा देवजूतोऽस्तम्नासिन्धुमर्णवं नृचक्षाः । विश्वामित्रो यनवहत्सुदासमप्रियायत कुशिकेभिरिन्द्रः ॥ (ऋक् ३-५३-२) २. इन्द्रस्य दूतीरिपिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधान्य. । अतिष्कदो भियसा उन्न आवत्तथा रसाया अतर पयासि ।। (ऋक् १०-१०८-२ इत्यादि) 3. I drive away the Devas. I profess myself a Zarthustrian, an expeller of Devas, a follower of the teachings of Ahura a hymn- singer, a praiser of Amshaspands (p 55, Zoroaster). प्राचीन आर्यावर्त : १४३