अवश्य मिलता है कि सुदास से लड़ने वाले दसों राजा यश विरोधी थे तब हमारे उस मत को वह डढ़ आधार मिलता है कि, सुंदास के अश्वमेध-यज्ञ के विरोध में ही यह दाशराज्ञ युद्ध हुआ। सुदास का वह यज्ञ यमुना के तट पर पूर्ण हुआ, जहां पर इन्द्र को अश्व के सिर उपहार में मिले । यदि १८ वे सूक्त के अनुसार ही दस राजाओ का चयन करना संगत हो, तो उक्त सूक्त में पुरु, अनु, द्रुह्य, भृगु, मत्स्य, विकरण, शिग्रु, यदु, तुर्वशु और अज लोगों के नाम स्पष्ट ही मिलते है, और ये आर्य जाति के नाम है। फिर उसी सूक्त मे उल्लिखित पांच अनार्यों को (पक्थ, भलान, भनन्तालिन, विषाणिन, शिव इत्यादि को) भी जोड देने से दस न होकर ये पंद्रह राजा हो जाते है। पक्थ, भलान आदि अनार्य तो उसी सूक्त में गायें चुराने वाले कहे गये है। ऐमा मालम होता है कि जब भरतवंशी आपस में लकड़ियों की तरह छितराये हुए थे और परस्पर लड रहे थे, तब इन अनार्यों को भी इनकी गाये चुराने का अवसर मिला होगा। वास्तव मे तो यह युद्ध इंद्रानुयायी सुदास और यज्ञ न करने वाले वृत्रानुयायी अन्य आर्य कुलो मे हुआ था। दाशराज्ञ संबंधी ८३ वे मूक्त (९ मत्र) मे इनके वृत्रानुयायी होने का स्पष्ट उल्लेख है 'वत्राण्यन्यः समिथेषु जिघ्नते'। इस युद्ध के संबंध मे ही संभवतः वसिष्ठ विपाशा-तट पर छोड गये और राजनीति के अनुसार उन्हे दक्षिणा भी दी गयी । तब उन्होने भी कहा कि, मनुष्यो ! सुदास के अनुयायी बनो, जैसा कि, तुम लोग उसके पिता को मानते थे। ऐसा अनुमान होता है कि, तृत्सुओं की पुगेहिती बनी रही, कितु भरतों के भाचार्य का पद विश्वामित्र को मिला । विश्वामित्र भरतों के दीक्षा गुरु हुए और वसिष्ठ-वंशी कर्मकाडी पुरोहित बने रहे। विश्वामित्र इंद्र के परम प्रशंसक थे और उन्ही की प्रेरणा से इद्र ने सुदास की सहायता की । विश्वामित्र ने उम युद्ध में शत-तट पर जो सहायता सुदास को दी उसका प्रमाण है -तीसरे मण्डल का तेतीस वा सूक्त जिमके ९१ और ९२ मंत्रों में भरतों के शतद्रुपार होने का वर्णन है। विश्वामित्र ने तो यहां तक कहा है कि १. दश राजानः समिता अयज्यवः सुदासमिन्द्रावणा न युगुधु ! (ऋक ७-८३-७) २. आवदिन्द्रं यमुना तृत्सवश्च प्रात्र भेद सर्वताता मुषायत । अजासश्च शिग्रवो यक्षवश्च बलि गीर्षाणि जभ्ररश्व्यानि ।। (ऋक् ७-१८-१९) ३. दण्डाइवेद्गोअजनास आसन्परिच्छिन्ना भरता अर्भकासः । अभवच्च पुरएता वसिष्ठ आदित्तत्सूनां विशो अप्रथन्त ॥ (ऋक् ७-३३-६) ४ इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः । अविष्टना पंजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु । (ऋक् ७-१८-२५) १४२: प्रसाद वाङ्मय
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