पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३

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जनमेजय का नागयज्ञ (प्राक्कथन) इस नाटक की कथा का सम्बन्ध एक बहुत प्राचीन स्मरणीय घटना से है। भारतवर्ष में यह एक प्राचीन परम्परा थी कि किसी क्षत्रिय राजा के द्वारा कोई ब्रह्महत्या या भयानक जनक्षय होने पर उसे अश्वमेघ यज्ञ करके पवित्र होना पड़ता था। रावण को मारने पर श्री रामचन्द्र ने तथा और भी कई बड़े-बड़े सम्राटों ने इस यज्ञ का अनुष्ठान करके पुण्य लाभ किया था। कलियुग के प्रारम्भ में पाण्डवों के बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय एक स्मरणीय शासक हो गये है। भारत के शान्ति पर्व, अध्याय १४० में लिखा हुआ मिलता है कि सम्राट् जनमेजय से अकस्मात् एक ब्रह्महत्या हो गई, जिस पर उन्हें प्रायश्चित-स्वरूप अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा। शतपथब्राह्मण (१३-५-४-१) से पता चलता है कि इन्द्रोत देवाप शौनक उस अश्वमेध में आचार्य थे और जनमेजय का अश्वमेध-यज्ञ इन्ही ने कराया था। महाभारत में भी इन्ही आचार्य का उल्लेख है । इस अश्वमेध-यज्ञ में कुछ ऐसे विघ्न उपस्थित हुए, जिनके कारण जनमेजय को शोनक से कहना पड़ा अद्य प्रभृति देवेन्द्रमजितेन्द्रियमस्थिरम् । क्षत्रिया वाजिमेधेन न यक्ष्यन्तीति शौनकः ।। दौर्बल्यं भवतामेतत् यदयंधर्षितः ऋतुः । विषयेमेन वस्तव्यं गच्छध्वं सहबान्धवैः ।। (हरिवंश, भविष्य पर्व, २०५) कौटिल्य के अर्थशास्त्र के तीसरे प्रकरण में लिखा है कोपाज्जन्मेजयो ब्राह्मणेषु विक्रान्त. क्षत्रिय सम्राट् जनमेजय ने अपने राजदण्ड के बल से एक प्राचीन प्रथा बहुत दिनों के लिए बन्द कर दी। इसमें कश्यप पुरोहित का भी बहुत कुछ हाथ था । इसका प्रमाण भी मिलता है। आस्तीक पर्व के पचासवें अध्याय से इस घटना का एक सूत्र मिलता है कि काश्यप यदि चाहते, तो परीक्षित को तक्षक न मार सकता; और जनमेजप को एक लकड़हारे की साक्षी से इसका प्रमाण दिलाया गया था। ऐतरेयब्राह्मण ७-२७ में इसी घटना का इस प्रकार उल्लेख है कि जब पारीक्षित जनमेजय का नागयज्ञ-प्राक्कथन : २३