पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२१९

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को उसकी प्रदक्षिणा करते हुए समझकर भी मेरु को सबसे उत्तर मानने की कल्पना आचार्य को भूगोल-भ्रमण संबन्धी नये आविष्कारों के कारण हुई होगी। किंतु जब सब से उत्तर में मेरु है तो फिर ऊपर के प्राचीन पौराणिकों के विचारानुसार उक्त मेरु के भी सौम्य अर्थात् उत्तर मे सोम की नगरी विभा कहां होगी ? कितु आचार्य ने स्वयं इस सिद्धांत मे विरोध देखा और इसी के परिहार के लिए उन्होंने स्पष्ट चेष्टा भी की-"अत्रोक्तः परिहारः आचार्य.।" कितु इस उपनिषद्, पुराण और ज्योतिष संबन्धी विरोध का स्पष्ट समन्वय नही किया जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी का अपने अक्षों पर भ्रमण सिद्ध करने वाले नवीन सिद्धांत के साथ गर्य की मेरु प्रदक्षिणा वाले प्राचीन विचार का सामंजस्य स्थिर करने के लिए सुमेरु और कुमेक की कल्पना पीछे से की गयी है। क्योकि, पूर्व काल मे ऐसा माना जाता था कि पृथ्वी अचला है और उसके मध्य मे कनक-पर्वत मेरु का निर्देश करके चारो दिशाओ मे इन्द्र, यम, वरुण और चन्द्र की चार नगरियां मानते थे। सूर्य मेरु के चारो ओर दक्षिणावर्त घूमते हुए इन्ही पर से होते हुए परिक्रमा करते है। इसी विचार से विष्णु पुराण मे लिखा है कि जम्बूदीप के बीचोबीच मेरु पर्वत है जम्बूद्वीप समस्तानामेतेषा मध्यसस्थित । तस्यापि मेरुमैत्रेय मध्ये नक पर्वत ॥ भारतं प्रथम वर्ष तत किंपुरुष स्मृतम् । हरिवर्ष तथैवान्य मगेर्दक्षिणतो द्विज ॥ रम्यकं चोत्तरे वर्ष तस्यैवानहिरण्यकम् । उत्तरा कुरवश्वैव यथा वै भारते तथा । मेरु के समीप दक्षिण मे प्रथम भारतवर्ष है, उसी के पास किपुरष है । महाभारत के अनुसार किपुरुपवर्ष यमुना के उद्गम व पाम है । इसी प्रकार पश्चिम और उत्तर के वर्षों का भी वर्णन है । उत्तर-कुरु आदि मेरु से संलग्न है । अवगाढ़। उभयतः समुद्री पूर्व-पश्चिमो। जम्बूद्वीपे महाराजः षडिमे कुलपर्वताः ॥ हिमवान् हेमकूटश्च, निषधो, नील एव च । मेरुश्च शृंगवाश्चैव सर्वे रत्नाकरा शुभाः ।। देवः स्वा नगरी नित्यं मानसोत्तरमूर्धनि । मेरं तु पश्यति विभुस्तत्स्थो मेरुगता पुरीम् ।। उदक्शृगवतोर्धे तु याम्येन कुरुसंज्ञितम् । वर्ष तु कथितं दिव्यं सर्वोपद्रववर्जितम् ।। ऊपर के अवतरणों से प्रमाणित होता है कि मेरु और उत्तर कुरु का ठीक वैसा प्राचीन आर्यावर्त : ११९