सहायक होते हैं। भाषा के निर्माण में शब्दों के इस व्यवहार का बहुत हाथ होता है। अर्थ-बोध व्यवहार पर निर्भर करता है, शब्द-शास्त्र में पर्यायवाची तथा अनेकार्थवाची शब्द इसके प्रमाण हैं। इसी अर्थ-चमत्कार का माहात्म्य है कि कवि की वाणी में अभिधा से विलक्षण अर्थ साहित्य में मान्य हुए। ध्वनिकार ने इसी पर कहा है –'प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् ।' अभिव्यक्ति का यह निराला ढंग अपना स्वतन्त्र लावण्य रखता है। इसके लिए प्राचीनों ने कहा- मुक्ताफलेषुच्छायायास्तरलत्वमिवांतरा प्रतिभाति यदंगेषु तल्लावण्यमिहोच्यते । मोती के भीतर छाया की जैसी तरलता होती है, वैसी ही कांति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। इस लावण्य को संस्कृत-साहित्य में छाया और विच्छित्ति के द्वारा कुछ लोगों ने निरूपित किया था। कुन्तक ने वक्रोक्तिजीवित में कहा है- प्रतिभा प्रथमोद्भेदममये यत्र वक्रता शब्दाभिधेययोरन्त. स्फुरतीव विभाव्यते । शब्द और अर्थ की यह स्वाभाविक वक्रता विच्छित्ति, छाया और काति का सृजन करती है। इस वैचित्र्य का सृजन करना विदग्ध कवि का ही काम है। वैदग्ध्यभंगी भणिति में शब्द की वक्रता और अर्थ की वक्रता लोकोत्तीर्ण रूप से अवस्थित होती है । (शब्बस्व हि वक्रता अभिधेयस्य च वक्रता लोकोत्तीर्णेन रूपेणावस्थानम्-लोचन २०८)' कुन्तक के मत में ऐसी भणिति 'शास्त्रादिप्रसिद्ध- शब्दार्थोपनिबन्धव्यतिरेकी' होती है। यह रम्यच्छायांतरस्पर्शी वक्रता वर्ण से लेकर प्रबन्ध तक में होती है। कुन्तक के शब्दों में यह 'उज्ज्वला छायातिशयरमणीयता' (१३३) वक्रता की उद्भामिनी है । परस्परस्य शोभाय बहवः पतिता: क्वचित् । प्रकारा जनयन्त्येतां चित्रच्छायामनोहराम् ॥ ३४ ॥ -वक्रोक्तिजीवित २ उन्मेष । कभी-कभी स्वानुभव संवेदनीय वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए सर्वनामादिकों का सुन्दर प्रयोग इस छायामयी वक्रता का कारण होता है-'वे आंखे कुछ कहती हैं।' अथवा- निद्रानिमीलितशो मदमन्थराया नाप्यर्थवन्ति न च यानि निरर्थकानि । अद्यापि मे वरतनोर्मधुराणि तस्या- स्तान्यक्षराणि हृदये किमपि ध्वनन्ति ।। १०६ :प्रसाद वाङ्मय
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